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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४८७ पुण्यगुणानां ख्यापनं यस्योदयाद्भवति तद्यशस्कीर्तिनाम प्रत्येतव्यम् । अत्र यशोनाम गुणः। कीर्तनं संशब्दनं कीर्तिः । यशसः कीर्तिर्यशस्कीतिरिति कथ्यते । पापगुणख्यापनकारणमयशस्कीतिनाम वेदितव्यम् । यस्योदयादार्हन्त्यमचिन्त्यविभूतिविशेषयुक्तमुपजायते तत्तीर्थकरत्वनामकर्म प्रतिपत्तव्यम् । स्यान्मतं ते-यथा तीर्थकरत्वनामकर्मोच्यते तथा गणधरत्वादिनामोपसङ्खयानमपि कर्तव्यं, गणधरचक्रघरवासुदेवबलदेवा अपि हि विशिष्टाद्धियुक्ता इति । तन्न वक्तव्यं-गणधरत्वादिनामन्यहेतुकत्वात्तथा हि-गणधरत्वं तावच्छ तज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षनिमित्तम् । चक्रधरत्वादीनि चोच्चर्गोत्रविशेषहेतु कानीत्यदोषः । तर्हि तदेवोच्चैर्गोत्रं तीर्थकरत्वस्यापि निमित्तमस्तु, किं तीर्थकरत्वनाम्नेति चेत्तन्नतीर्थप्रवर्तनफलत्वात्तस्य । यद्धि तीर्थप्रवर्तनलक्षणं फलं तीर्थकरनाम्न इष्यते तन्नोच्चैर्गोत्रोदयादवाप्यते जिसके उदय से पुण्य गुणों की प्रसिद्धि होवे वह यशस्कीति नाम कर्म है। यहां यश नामका गुण और उसकी कीत्ति अर्थात् सशब्दन कथन होना यशस्कीत्ति है। यश की कीत्ति यशस्कीत्ति ऐसा समास है । पाप गुणके ख्यापन-कथन में जो कारण पड़ता है वह अयशस्कीति नाम कर्म है। जिसके उदय से आर्हन्त्य पद जो कि अचिन्त्य विभूति का कारण है ऐसा तीर्थंकर पद प्राप्त होता है वह तीर्थंकर नाम कर्म है। । शंका-जैसे तीर्थंकरत्व नामका कर्म बताया वैसे गणधरत्वादि नामके कर्मों की भी गणना करनी चाहिए। क्योंकि गणधर, चक्रधर, वासुदेव, बलदेव ये पुरुष भी विशिष्ट ऋद्धि सम्पन्न होते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं करना चाहिए । गणधरत्व आदि पदके हेतु दूसरे माने गये हैं, देखिये ! श्रुतज्ञानावरण कर्मके अत्यन्त उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर गणधरत्व प्रगट होता है । चक्रधर, वासुदेव और बलदेवादि पदोंका कारण तो विशिष्ट उच्चगोत्र का उदय है, इस तरह कोई दोष नहीं है । प्रश्न-यदि चक्रधरत्वादि कारण उच्च गोत्र हैं तो तीर्थकरत्व कारण भी वही होवे, फिर इस तीर्थंकर नाम कर्मको क्यों माना जाय ? उत्तर-ऐसा नहीं है। तीर्थंकरत्व कर्मका फल तो तीर्थ प्रवर्तन कराना है। तीर्थ प्रवर्त्तनरूप जो फल है वह तीर्थंकर नाम कर्म से ही होता है वह फल उच्च गोत्र कर्मके उदय से प्राप्त नहीं होता। यदि होता हो तो चक्रधरादि में भी होना था ? किंतु उनमें ऐसा तीर्थ प्रवर्त्तनरूप फल उपलब्ध नहीं है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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