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________________ ४९२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती इतरेषामेकेन्द्रियादीनामागमानुसारेण योज्या। तद्यथा-एकेन्द्रियपर्याप्तकस्यैकसागरोपमसप्तभागास्त्रयः । द्वीन्द्रियपर्याप्तकस्य पञ्चविंशतिसागरोपमसप्तभागास्त्रयः । त्रीन्द्रियपर्याप्तकस्य पञ्चाशत्सागरोपमसप्तभागास्त्रयः । चतुरिन्द्रियपर्याप्तकस्य सागरोपमशतसप्तभागास्त्रयः । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य सागरोपमसहस्रसप्तभागास्त्रयः । संज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तकस्यान्तःसागरोपमकोटीकोटयः । एकेन्द्रियाऽपर्याप्तकस्य त एव भागाः पल्योपमस्यासङ्घय यभागोनाः । द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाऽपर्याप्तकाsसंज्ञिनां त एव भागाः पल्योपमासङ्घय यभागोना वेदितव्याः । इदानीं मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितिनिर्णयार्थमाह सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १५॥ मोहनीयस्य कर्मण. सप्ततिः सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिरित्यभिसम्बध्यते। इयमपि परा स्थितिमिथ्यादृष्टेः संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्यावगन्तव्या। इतरेषामेकेन्द्रियादीनां तु यथा इतर जो एकेन्द्रिय आदि जीव हैं उनकी आगमानुसार लगाना चाहिए। इसीको आगे बताते हैं-एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव के उक्त ज्ञानावरण आदि चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण है, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीव के पच्चीस सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण है, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव के पचास सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण है, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव के सौ सागर के सात भागों में से तीन भाग है, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके एक हजार सागर के सात भागों में से तीन भाग है। यह सब तो पर्याप्तक जीव की स्थिति का कथन हआ। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव की उक्त कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागर प्रमाण है। एकेन्द्रिय में जो पर्याप्तक की स्थिति कही है उसमें पल्य का असंख्यात भाग कम करने पर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक की स्थिति होती है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के अपर्याप्तक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति अपने अपने पर्याप्तक की जो स्थिति है उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग कम करते जाने से प्राप्त होती है। अब मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति को बताते हैंसूत्रार्थ-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है। मोहनीय कर्म की सत्तर सागरोपम कोटाकोटी प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ऐसा सम्बन्ध किया जाता है। यह स्थिति भी मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव की जाननी चाहिए। इतर एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों की मोहनीय की
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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