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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४८५ दयाद्रूपवानरूपो वा परेषां प्रीतिं जनयति तत्सुभगनाम । रूपादिगुणोपेतोऽपि सन् यस्योदयादन्येषामप्रीतिहेतुर्भवति तदुर्भगनाम । मनोज्ञस्वरनिर्वर्तनं यन्निमित्तमुपजायते प्राणिनस्तत्सुस्वरनाम । यत्तद्विपरीतफलममनोज्ञस्वरनिर्वर्तनकरं तद्दुःस्वरनाम। यदुदयादृष्टः श्रुतो वा रमणीयो भवत्यात्मा तच्छुभनाम । तद्विपरीतफलं द्रष्टुः श्रोतुश्चाऽरमणीयकरं यत्तदशुभनाम । यस्योदयादन्यजीवानुग्रहोपघाताऽयोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत्सूक्ष्मनाम । अन्यबाधानिमित्तं स्थूलशरीरं यतो भवति तद्बादरनाम । यस्योदयादाहारादिभिरात्माऽन्तर्मुहूर्त पर्याप्ति प्राप्नाति तत्पर्याप्तिनाम । तत्षड्विधमाहारपर्याप्तिनाम शरीरपर्याप्तिनामेन्द्रियपर्याप्तिनाम प्राणापानपर्याप्तिनाम भाषापर्याप्तिनाम मन:पर्याप्तिनाम चेति । ननु च प्राणापानकर्मोदये वायोनिष्क्रमणप्रवेशनात्मकं फलमुच्छ्वासकर्मोदयेऽपि तदेवेति नास्त्यनयोविशेष इति चेन्नैवमैन्द्रियकातीन्द्रियभेदात्तद्विशेषोपपत्तेः । तथाहि-शीतोष्णसम्बन्धजनितदुःखस्य वह स्थावर नाम कर्म है। जिसके उदय से जीव रूपवान होवे चाहे कुरूप होवे किन्तु परको प्रीति पैदा कराता है वह सुभग नाम कर्म है। रूपादि गुण युक्त होने पर भी जिसके उदय से दूसरों को अप्रीति स्वरूप लगता है वह दुर्भग नाम कर्म है। जिसके निमित्त से जीवके मनोज्ञ स्वर बनता है वह सुस्वर नाम कर्म है। जिसके निमित्त से उससे विपरीत अमनोज्ञ स्वर बनता है वह दुःस्वर नाम कर्म है। जिसके उदय से आत्मा देखने में या सुनने में रमणीय प्रतीत होता है वह शुभ नाम कर्म है । उससे विपरीत देखने और सुनने वालों को जिसके निमित्त से असुन्दर लगे वह कर्म अशुभ नाम कर्म है । जिसके उदय से अन्य जीवों का अनुग्रह या घात नहीं होवे वह सूक्ष्म शरीर का रचने वाला सूक्ष्म नाम कर्म है । जिसके निमित्त से अन्य को बाधाकारक स्थूल शरीर बने वह बादर नाम कर्म है। जिसके उदय से आहारादि द्वारा आत्मा अन्तर्मुहर्त में पर्याप्ति को प्राप्त करता है वह पर्याप्ति नाम कर्म है, इसके छह भेद हैं आहार पर्याप्ति नाम, शरीरपर्याप्ति नाम, इन्द्रियपर्याप्ति नाम, प्राणापानपर्याप्ति नाम, भाषापर्याप्ति नाम, मनःपर्याप्ति नाम । शंका-प्राणापान कर्म के उदय होने पर वायु का निकलना और प्रवेश करना रूप फल होता है और उच्छ्वास नाम कर्मके उदय का भी वही फल है, इस तरह इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं है, ऐन्द्रियक और अतीन्द्रिय के भेद से उनमें विशेषता होती है, आगे इसी का खुलासा करते हैं-शीत और उष्ण के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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