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________________ ४८२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नाम, शुक्लवर्णनाम चेति । अचेतनेषु कर्मोदयाभावात्कथं स्पर्शादय इति चेदुच्यते अणुस्कन्धरूपेषु पुद्गलेषु ये स्पर्शादयस्ते तत्स्वभावपरिणामा वेदितव्याः। न तु विभावपरिणामाः कर्मकृतास्तत्र कर्मण एवाभावादिति । पूर्वशरीराकाराऽविनाशो यस्योदयाद्भवति तदानुपूयं नाम । तच्चतुर्विध-नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम चेति । यदा छिन्नायुर्मनुष्यस्तिर्यग्वा पूर्वेण शरीरेण वियुज्यते तदैव नरकभवं प्रत्यभिमुखस्य तस्य यत्पूर्वशरीरसंस्थानाऽनिवृत्तिकारणमपूर्वशरीरप्रदेशप्रापणसामोपेतं च विग्रहगतावुदेति तन्नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । न चैतन्निर्माणनामकर्मसाध्यं फलमिति वक्तव्यं-पूर्वायुरुच्छेदसमकाल एव पूर्वशरीरनिवृत्तौ निर्माणनामोदयनिवृत्तेः । प्रानुपूर्योदयकालो विग्रहगतो जघन्ये. नैकसमय उत्कर्षेण त्रयः समयाः । ऋजुगतौ तु पूर्वशरीराकारविनाशे सत्युत्तरशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणं निर्माणनामकर्मोदयस्य व्यापारः । यस्योदयादयःपिण्डवद्गुरुत्वान्नाधःपतित न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्व प्रश्न- शरीर अचेतन है उसमें कर्मोदय का अभाव होने से स्पर्शादि कैसे होंगे ? उत्तर-अणु स्कन्धरूप पुद्गलों में जो स्पर्शादिक होते हैं वे उन्हीं के स्वभावरूप होते हैं, वे पुदगल के स्पर्शादिक विभावरूप नहीं हैं न कर्मकृत हैं, पुद्गल में तो कर्मोदय है नहीं। जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार नष्ट नहीं होता वह आनुपूर्वी नाम कर्म है । वह चार प्रकार का है नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नाम, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नाम, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नाम । जैसे जब मनुष्य या तिर्यंच जीव अपनी आयु समाप्त होने पर पूर्व शरीर से पृथक होता है उसी समय नरक भवके सम्मुख होने वाले उस जीवके जो पूर्व शरीर का आकार बना रहता है और नये शरीर के प्रदेशों को प्राप्त करने की सामर्थ्य होती है तथा जो विग्रहगति में मात्र उदय में आता है वह नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नाम है । ऐसे ही शेष तीन आनुपूर्वी में लगाना । पूर्व शरीर का आकार बना रखना निर्माण नाम कर्मका कार्य है ऐसा कोई कहे तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्वकी आयु समाप्त होते ही पूर्व शरीर नष्ट होता है और उसके साथ ही निर्माण नाम कर्म का उदय भी समाप्त होता है। इस आनुपूर्वी का उदय काल विग्रहगति में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से तीन समय है । ऋजगति में तो पूर्व शरीर के आकार का नाश होते ही उत्तर शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण होता है, और उसमें निर्माण नाम कर्म के उदयका व्यापार होता है । जिस कर्मके उदय से शरीर युक्त जीव लोह पिण्ड के समान भारी होकर नीचे नहीं गिरता है और आक के रूई के समान हलका होकर ऊपर नहीं उड़ता है वह अगुरुलघु
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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