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________________ ४७८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती यदात्मा न गच्छति तदाऽगतिर्भवेत् । सत्कर्मावस्थायां च गतिव्यपदेशो न स्यात् । एवमन्यत्रापि । सा चतुर्विधा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिश्चेति । यन्निमित्त आत्मनो नारकभावस्तन्नरकगतिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतार्थात्मा जातिरित्याविशेष गति के अर्थ में यह गति शब्द आया है। जैसे गो शब्द बनता है। यदि गति शब्द का अर्थ गमन करना किया जाय तो जिस समय आत्मा गमन क्रिया नहीं करता है उस समय उसको अगति-गतिरहित मानना पड़ेगा तथा जब भक्ति कर्म सत्तामें रहता है उस वक्त भी आत्मा को अगति मानना होगा। ऐसे ही अन्य शब्दों में लगाना । विशेषार्थ-यहां पर गति शब्द की निरूक्ति की है कि-'गम्यते इति गतिः' जिसके उदय से गमन किया जाय वह गति है ऐसा गम धातु से क्ति प्रत्यय आकर गति शब्द निष्पन्न हुआ। यह शब्द गोशब्द के समान रूढिवश बना है। जैसे गाय चले चाहे न चले किन्तु रूढिवश उसे गच्छति इति गौः कहा जाता है, वैसे आत्मा गमन करे चाहे न करे गति नाम कर्म के उदय से उसको गतियुक्त माना जाता है। सामान्यतः गतिका .उदय सर्व संसारी जीवों के सदा पाया जाता है, गति कर्म के उदय से रहित कोई संसारी जीव नहीं है, हां गतिकर्म का परिवर्तन अवश्य होता है, मनुष्य में मनुष्य गति का उदय है, मनुष्य मरता है तो अन्य देवादि यथा योग्य गति का उदय चालू हो जाता है इत्यादि । यहां विशेष यह कहना है कि 'इतरथा हि यदात्मा न गच्छति तदाऽगतिर्भवेत् । सत्कर्मावस्थायां च गति व्यपदेशो न स्यात्' ऐसा संस्कृत टीका में वाक्य है, जिसका अर्थ होता है कि यदि गति नामकर्म का अर्थ या कार्य गमन करते हैं तो जिस समय आत्मा गमन क्रिया नहीं करता उस वक्त उसको अगति-गतिरहित मानना पड़ेगा, जो कि सिद्धांत विरुद्ध है, इसका कारण ऊपर कह ही दिया है। तथा गति कर्म सत्ता अवस्था में जब रहता है उस वक्त गति संज्ञा नहीं होगी, यह इतना वाक्यार्थ विचारणीय है, क्योंकि गति कर्म केवल सत्ता में ही रहे कोई भी गति उदय में नहीं आवे ऐसा संसार अवस्था में होता ही नहीं, हां यह तो होता है कि जिस गति में आत्मा वर्तमान में है केवल वही एक गति उदय में रहती है शेष तीन गतियां सत्तारूप रहती हैं, उनका गमनरूप फल नहीं है तो भी उन्हें गति ही कहते हैं। इस दृष्टि से कहा कि सत्ता में स्थित गति कर्मकी भी गति संज्ञा है। अतः गमन करावे चाहे न करावे तो भी गति कर्मको गति ही कहते हैं, अस्तु । गति चार प्रकार की है-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । जिसके उदय से आत्माके नारक भाव प्राप्त होता है वह नरकगति नाम कर्म है । इस तरह शेष गतियों में लगाना चाहिए ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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