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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४६१ यथा निम्बस्य प्रकृतिस्तिक्तता । गुडस्य प्रकृतिमधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य प्रकृतिरर्थाऽनवगमो ज्ञानप्रतिहननस्वभावो वा दर्शनावरणस्य प्रकृतिरर्थाऽनालोचनं दर्शनप्रच्छादनशीलता वा। वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य प्रकृतिः सुखदुःखसंवेदनम् । दर्शनमोहस्य प्रकृतिस्तत्त्वार्थाऽश्रद्धानम् । चारित्रमोहस्य प्रकृतिसंयमः । आयुषः प्रकृतिर्भवधारणम् । नाम्नः प्रकृति रकादिनामकरणम् । गोत्रस्य प्रकृतिरुच्चर्नीचैःस्थानसंशब्दनम् । अन्तरायस्य प्रकृतिर्दानादिविघ्नकरणं वेदितव्यम् । तत्स्वभावाऽप्रच्युतिः स्थितिः । यथाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां माधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिस्तथा ज्ञानावरणादीनामर्थाऽनवगमादिस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिरित्युच्यते । तद्रसविशेषोऽनुभवः । यथैवाऽजागोमहिष्यादिक्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेषस्तथैव कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्य विशेषोऽनुभव इति कथ्यते । कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं प्रदेश इति व्यपदिश्यते । प्रकृतिश्च स्थितिश्चानुभवश्च प्रदेशश्च प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशाः । तच्छब्देन बन्धस्य प्रतिनिर्देशः । विधिशब्दः प्रकारवाची। बन्धस्य विधयो बन्धविधयः । त एते प्रकृत्यादयश्चत्वारो बन्धप्रकारा इति समुदायार्थः । तत्र प्रकृति का अर्थ कहते हैं-स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, जैसे निब की प्रकृति कड़वापन है, गड़ की प्रकृति मीठापन है वैसे ज्ञानावरण की प्रकृति पदार्थ का बोध नहीं होने देना है अथवा ज्ञानका घात करना है। दर्शनावरण की प्रकृति पदार्थ को देखने नहीं देना अथवा दर्शन को ढकना है । साता असाता कर्मकी प्रकृति सुख दुःखका वेदन कराना है। दर्शनमोह कर्मकी प्रकृति तत्वार्थ का श्रद्धान नहीं होने देना है। चारित्रमोह की प्रकृति असंयम है। आयुकी प्रकृति भवको धारण करना है। नामकी प्रकृति नारकादि नाम करना है । गोत्र की प्रकृति उच्च नीच स्थान से कहना है । और अन्तराय की प्रकृति दानादि में विघ्न करना है। उस स्वभाव की च्युति-नाश नहीं होना स्थिति है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में मधुरता स्वभाव की अच्युति है। वैसे ज्ञानावरण आदि में पदार्थों को नहीं जानना इत्यादि रूप जो स्वभाव है वह नष्ट नहीं होना स्थिति कहलाती है। उन ज्ञानावरण आदि के प्रकृति का जो रस है वह अनुभव है, जैसे-बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध में तीव्र मन्द आदि रूप रस विशेष रहता है, वैसे कर्म पुद्गलों में अपने में होने वाला सामर्थ्य विशेष रहता है वह अनुभव कहलाता है । कर्मभाव से परिणत पुद्गल स्कन्धों का परमाणु के माप से अवधारण करना (गणना करना) प्रदेश है। प्रकृति आदि पदों में द्वन्द्व समास है । तत् शब्द बन्धका निर्देश करता है। विधि शब्द प्रकार वाची है, बन्धकी विधि बन्ध विधि ऐसा तत्पुरुष समास हुआ है । ये प्रकृति आदि बंधके
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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