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अष्टमोऽध्यायः
[ ४५९ च गुणिनोप्यभाव इत्युभयाभावान्मुक्तयभावः स्यात् । बन्धशब्दः करणादिसाधनो द्रष्टव्यः। तत्र करणसाधनस्तावद्बध्यते आत्मा येनासौ बन्धो मिथ्यादर्शनादिः । ननु बन्धहेतुरुक्तः । कथं बन्धो भवितुमर्हतीति चेत्सत्यमेतत्कि त्वभिनवद्रव्यकर्मादाननिमित्तत्वात् बन्धहेतुरपि सन्पूर्वोपात्तकर्महेतुकत्वात्कार्यतामास्कन्दन् तदुनुविधानादात्मनोऽस्वतन्त्रीकरणात्करणव्यपदेशमहतीति । तदनेनात्मना बध्यते प्रात्मसात्क्रियतेऽसौ बन्ध इति कर्मसाधनत्वमुपपद्यते । ज्ञानदर्शनाऽव्याबाधाऽनामाऽगोत्राऽनन्तरायत्वलक्षणं पुरुषसामर्थ्य प्रतिबध्नाति यः स बन्ध इति कर्तृ साधनत्वमपि चोपपन्नम् । तथा बन्धनं बन्ध इति भावसाधनो बन्धशब्दो विज्ञेयः । ननु भावसाधनपक्षे अस्य कर्मभिः सामानाधिकरण्यं नोपपद्यते-ज्ञानावरणं बन्ध इत्यादि । नैष दोषस्तदव्यतिरेकात्-भावस्य भाववताऽभिधानं युज्यते यथां ज्ञानमेवात्मेति ।
गुणी का भी अभाव-नाश होगा, इस तरह गुण और गुणी दोनों का अभाव होने पर मुक्तिका अभाव हो जाता है ।
बन्ध शब्द करण आदि साधन से सिद्ध होता है, करण साधन-'बध्यते आत्मा येन असौ बन्धः मिथ्यादर्शनादिः' जिसके द्वारा आत्मा बन्धता है वह बन्ध अर्थात् मिथ्यादर्शनादि बन्ध है।
प्रश्न- अभी आपने मिथ्यादर्शनादि को बन्धका कारण कहा था और अब उसे ही बन्ध कह रहे हैं यह कैसे सम्भव है ?
उत्तर-ठोक कहा, किन्तु नवीन द्रव्य कर्मों के ग्रहण में निमित्त होने से मिथ्यात्वादि बन्ध हेतु भी होते हैं और पूर्व के उपाजित कर्म के उदय से होने के निमित्त से कार्यता प्राप्त करते हैं, पुनः आगामी कर्मों के लिए कारण बनते हैं इसतरह आत्माको परतन्त्र करने से करण साधन निर्देश बनता है। 'अनेन आत्मना बध्यते आत्मसात्क्रियते असौ बन्धः' ऐसा कर्मसाधनरूप बन्ध शब्द निष्पन्न होता है । अथवा ज्ञान, दर्शन, अव्याबाधत्व, अनाम, अगोत्र और अनन्तराय लक्षण वाला आत्मा का जो सामर्थ्य है नोट-(यहां पर मूल में अवगाहनत्व और सम्यक्त्व ये दो शब्द छूट गये ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि ज्ञानावरणादि आठ कर्म ज्ञानादि आठ गुण या सामर्थ्य को नष्ट करते हैं, उनमें से यहां छह ही आये हैं दो छूट गये हैं) उसको जो रोक देता है बांध देता है वह बंध कहलाता है, यह कर्तृ साधन हुआ। 'बन्धनं बन्धः' ऐसा भावसाधन रूप भी बंध शब्द बनता है।
_शंका-बंध शब्दको भाव साधनरूप मानते हैं तो इस शब्दका कर्मों के साथ सामानाधिकरण्य नहीं बनेगा, 'ज्ञानावरणं बंधः' इस तरह कैसे कहेंगे ? अर्थात् भाव