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________________ ४५८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती पुद्गलात्मकत्वख्यापनार्थम् । तेनाऽदृष्टोऽनात्मगुण इति निवेदितं भवति । यदि ह्यात्मगुण एव कर्म स्यात्तदा तस्याप्यमूर्तत्वं भवेत्तथा च सति यथाकाशममूर्ति दिगादीनां नानुग्राहकमुपघातकं च तथैवामूर्ति कर्मामूर्तरात्मनोऽनुग्रहोपघातयोर्हेतुर्न स्यादित्यनिष्टमापद्येत। पादत्त इति वचन सकषायत्वाज्जीवो बन्धमनुभवतीति यत्प्रतिज्ञातं तस्योपसंहारार्थं वेदितव्यम् । अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादार्टीकृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषात्तेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्याख्यायते । यथा च भाजनविशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषायवशात्कर्मभावेन परिणामोऽवसेयः । सवचनमन्यनिवृत्त्यर्थं स एष एवोक्तलक्षणो बन्धो नान्योऽस्तीति । तेन गुणगुणिबन्धो निवतितो भवति । यदि हि गुणगुणिबन्धः स्यात्तदा मुक्तयभावः प्रसज्येत-गुणस्वभावापरित्यागाद्गुणिनः । स्वभावपरित्यागे है कि अदृष्ट नामा आत्मा का गुण है वही पुण्य पाप कर्म रूप है इत्यादि । वास्तव में यदि कर्म आत्मा का गुण होता तो उसके अमूर्त पना आ जाता और कर्मको अमूर्त स्वीकार करने पर जैसे आकाश अमूर्त होने से दिशादि का अनुग्राहक या उपघातक नहीं बनता, वैसे अमूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के अनुग्राहक और उपघातक नहीं बन सकता था, इस तरह अनिष्ट-अमान्य बात सिद्ध हो जाने का प्रसंग आता । 'आदत्त' इस पद से सकषायत्व होने से जीव बन्धका अनुभव करता है ऐसी जो पहले प्रतिज्ञा की थी (अर्थात् निश्चित किया था) उस कथन के उपसंहार के लिये 'आदत्त' पद दिया है । फलितार्थ यह हुआ कि मिथ्यादर्शनादि के आवेश से आर्द्र हुए आत्मा के सब ओर से योग विशेष के कारण सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाह को प्राप्त ऐसे अनन्तानंत प्रदेश वाले पुद्गलों का जो कि कर्मरूप होने योग्य हैं उनका आत्माके साथ अविभाग स्वरूप उपश्लेष हो जाना बन्ध है । जैसे बर्तन में रखे गये अनेक प्रकार के रस, बीज, पुष्प और फल मदिरारूप परिणमन कर जाते हैं, वैसे आत्मा में स्थित पुद्गल भी योग और कषाय के कारण कर्मरूप से परिणमन कर जाते हैं । ‘स बन्धः' इसमें स शब्द आया है उससे उक्त लक्षण वाला ही बन्ध है अन्य कोई नहीं है ऐसा सिद्ध नहीं होता है । इस कथन से गुण और गुणीका बन्ध मानने वाला सिद्धान्त निरस्त हो जाता है, यदि गुण और गुणीका बन्ध माना जाय तो कभी भी मुक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि गुण तो गुणीका स्वभाव होता है और जो स्वभाव होता है उसका कभी त्याग या अभाव नहीं हो सकता, यदि कदाचित हटात् स्वभाव का त्याग या नाश माना जाय तो
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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