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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४५७ मनशक्तिसमर्थानित्यर्थः । कर्मयोग्यानिति लघुनिर्देशात्सिद्धे कर्मणो योग्यानिति पृथग्विभक्तय च्चारणं वाक्यद्वयज्ञापनार्थं क्रियते । तद्यथा-कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । अस्यायमर्थः-कर्मण इति हेतु निर्देशः । ततः कर्मणो हेतोः पौद्गलिकात्सकषायो जीवो भवति, न स्वभावतस्ततोऽन्यापेक्षस्य कषायस्य न सातत्यं, येन मुक्तयभावः स्यात् । द्वितीयं वाक्यं-कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्त इति । अस्याप्ययमर्थः-अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति पूर्वं कर्मण इति हेतुनिर्देशः। इह सम्बन्धनिर्देशः सम्पद्यते । सम्बन्धः सन् जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते सकषायत्वादिति कर्मयोग्यपुद्गलादानात्प्रागपि यस्मात्सम्बन्धः संसारी तस्मात्तस्य तदादानं न विरुध्यते। अन्यथाऽस्याधुना सकषायत्वस्याप्यनुपपत्तेः । एवं च न संसारी शुद्धस्वभावोऽनादिकर्मबन्धसहितस्याऽशुद्धरूपतोपपत्तेः । पुद्गलग्रहणं कर्मणः के लिये भी जीव शब्द को ग्रहण किया है। कर्म के योग्य अर्थात् ज्ञानावरण आदि पर्याय रूप से परिणमन की सामर्थ्य से युक्त 'कर्मयोग्यात्' ऐसा लघु निर्देश हो सकता था किन्तु 'कर्मणो योग्यान्' ऐसा पृथक विभक्ति वाला निर्देश किया है वह दो वाक्यों को बतलाने हेतु किया है । आगे इसीको कहते हैं-कर्म से जीव कषाय सहित होता है यह एक वाक्य है, इसका अर्थ यह है कि कर्मणः कर्म से यह हेतु निर्देश है, उस कर्मरूप पौद्गलिक हेतु से जीव कषाययुक्त होता है, अपने आप स्वभाव से कषाययुक्त नहीं होता, इससे यह अर्थ फलित होता है कि कषाय परकी अपेक्षा से होती है, इसलिये सतत नहीं पायी जाती, यदि सतत पायी जाय तो जीव कभी मुक्त नहीं होगा। भाव यह है कि कषाय आत्मा का ज्ञान दर्शन जैसा स्वभाव नहीं है इसलिये अनादिकाल से प्रवाहरूप से आत्मा में रहते हुए भी उसका नाश हो जाता है और आत्मा कर्म से मुक्त होकर सुखी हो जाता है । दूसरा वाक्य यह है कि कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, इसका भी यह अर्थ है कि अर्थ के निमित्त से विभक्ति बदल जाती है इस नियमानुसार पहले तो 'कर्मणः' का अर्थ पञ्चमी विभक्ति वाला पद था और इस दूसरे वाक्य में 'कर्मणः' पदको षष्ठो विभक्ति वाला स्वीकार करते हैं, सम्बन्ध होकर जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। सकषायत्व होने से, कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने के पहले भी जिस कारण से संसार था उस कारण से उसके कर्म ग्रहण विरुद्ध नहीं पड़ता है । यदि पहले उस आत्मा के सकषायत्व नहीं होता तो अभी भी सकषायत्व नहीं बनता । इससे निश्चित है कि संसारी जीव शुद्ध स्वभाव वाले नहीं हैं, क्योंकि अनादिकाल से ही कर्म बन्ध युक्त होने से उनमें अशुद्धता आयी हुई है। सूत्र में पुद्गलान् ऐसा पद आया है इससे कर्म पुद्गल द्रव्यात्मक है ऐसा सिद्ध होता है । इसलिये परवादी का कथन निरस्त होता
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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