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________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थंवृत्ती सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ||२|| कषायो निरुक्तः क्रोधादिः । सह कषायेण वर्तत इति सकषाय आत्मा । तस्य भावः सकषायत्वम् । तस्मात्सकषायत्वात् । ननु बन्धहेतु विधाने कषायग्रहणस्योक्तत्वादत्र पौनरुक्तयं प्राप्नोतीति चेत्तन्न वक्तव्यमन्यार्थत्वात्कषायानुवादस्य । यथा जठराग्नयाशयानुरूपमभ्यवहरणं तथा कषायेषु सत्सु तीव्रमन्दमध्यमकषायपरिणामानुरूपस्थित्यनुभवने भवत इत्येतस्य विशेषस्य प्रतिपादनार्थं कषायग्रहणं पुनरनूद्यते । अत्र जीवनमायुः प्रारणलक्षणम् । तेनाऽविनिर्मुक्तोऽयमात्मा कर्मादत्ते न तु विनिर्मुक्तः । नापि प्रधानं कर्मादत्ते । न च तत्सकषायमाकाशादिकं वा तस्याऽचेतनत्वादित्येतस्यार्थस्य प्रतिपत्त्यर्थं जीवाभिधानं कृतं, अनादिसम्बन्धत्वज्ञापनार्थं च । कर्मणो योग्यात् ज्ञानावरणादिपर्यायरूपेण परिण ४५६ ] सूत्रार्थ — सकषायपना होने से जीव कर्मके योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बन्ध कहलाता है । क्रोधादि कषाय कह चुके हैं । कषाय से सहित आत्माको सकषाय कहते हैं । भाव अर्थ में त्व प्रत्यय आकर सकषायत्व शब्द बना है । शंका-उस सकषायत्व से बन्ध के हेतु के कथन में कषाय का ग्रहण हो गया है। अतः यहां कहना पुनरुक्त दोष होगा ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, कषाय का पुनः ग्रहण अन्य अर्थ को सूचित करता है । जैसे - जठर की अग्नि के अनुसार खाया हुआ भोजन पचता है अर्थात् पेटकी अग्नि यदि तीव्र तेज है तो खाया हुआ भोजन अच्छी तरह पच जाता है, और यदि उक्त अग्नि मन्द है या मध्यम है तो उसी तरह भोजन पचता है, ठीक इसी प्रकार कषायों के होने पर उनके तीव्र मन्द मध्यम कषाय परिणामों के अनुसार स्थिति और अनुभाग होते हैं, इस विशेषता का प्रतिपादन करने के लिये कषाय शब्द का पुनः ग्रहण हुआ है । यहां आयुप्राण को जीवन कहा है और उस जीवन से युक्त जो आत्मा है वही कर्मों को ग्रहण करता है, जो उक्त जीवन से रहित है, वह आत्मा कर्म ग्रहण नहीं करता ऐसा जानना । जैन मत प्रधान को (सांख्य मत में आत्माको सर्वथा शुद्ध माना है उसको बन्ध नहीं होता किन्तु प्रधान नामके जड़ तत्त्वको ही बन्ध होता है ऐसा उनके यहां माना है) कर्मको ग्रहण करने वाला नहीं मानता अर्थात् कर्मको आत्मा ही ग्रहण करता है न कि जड़ प्रधान । क्योंकि कषाययुक्तपना - कषायभाव उस जड़ प्रधान के संभव नहीं है, न आकाशादि के कषायभाव सम्भव है, क्योंकि ये अचेतन हैं । इस बातको स्पष्ट करने के लिये सूत्र में 'जीव' शब्द लिया है तथा अनादि सम्बन्धपना बतलाने
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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