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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४५५ रूपाः परस्परं हेतुहेतुमद्भावेनानादिसन्तत्या जीवस्य बोद्धव्याः । तत्र द्रव्यरूपाः पुद् गलद्रव्यविकाराः । भावरूपास्तु चेतनद्रव्यविकारा इति विज्ञेयाः । तत्र च ये स्वसंवेदिता भावमिथ्यादर्शना दयस्ते द्रव्यमिथ्यादर्शनादिबन्धस्य हेतवो ज्ञापका भवन्ति । तेषां द्रव्य मिथ्यात्वादिकर्मबन्धमन्तरेणानुपपत्तेर्द्रव्यमिथ्यात्वादिकर्मबन्धभावोऽपि भावमिथ्यात्वादीनामुत्पत्तौ । अन्यथा मुक्तात्मनोऽपि तत्प्रसङ्गः स्यात् । एवं च सति द्रव्य मिथ्यात्वादयोऽस्वसंवेदिताः कारका एव हेतवो भाव मिथ्यात्वादिबन्धस्येति भावमिथ्यात्वादयो हेतवः कारकाश्च द्रव्य मिथ्यात्वादीनामिति च परस्परं हेतुहेतुमद्भावो विजातीयानां कथितो भवति । तथा सजातीयानां च स बोद्धव्यः । पूर्वपूर्वमिथ्यादर्शनादीनां द्रव्यभावात्मनां तथाविधोत्तरोतर मिथ्यात्वादिहेतुत्वेन सुप्रतीतत्वादित्यलमतिविस्तरेण । इदानीं बन्धप्रतिपत्त्यर्थमाह मिथ्यादर्शन आदिक द्रव्य रूप और भावरूप हैं । ये द्रव्यरूप मिथ्यात्व आदि और भावरूप मिथ्यात्व आदि परस्पर में कारण कार्यरूप से अनादि सन्तानपन से जीवके होते हैं, अर्थात् भाव मिथ्यात्व से द्रव्य मिथ्यात्व उत्पन्न होता है और द्रव्य मिथ्यात्व के उदय से पुनः भाव मिथ्यात्व उत्पन्न होता है यह कारण कार्य की परम्परा जीव में अनादिकाल से चली आ रही है । इसीतरह अविरति, प्रमाद आदिके विषय में समझना । उनमें जो द्रव्यरूप मिथ्यात्व आदि हैं वे पुद्गल द्रव्यके विकार हैं और जो भावरूप मिथ्यात्वादि हैं वे चेतन द्रव्य के विकार हैं ऐसा जानना चाहिए। उनमें जो स्वसंवेदित भाव मिथ्यादर्शनादि हैं वे द्रव्य मिथ्यादर्शनादि के बन्धके ज्ञायक हेतु हैं, क्योंकि द्रव्य मिथ्यात्व आदि कर्म बन्ध के बिना वे भाव मिथ्यात्वादि नहीं हो सकते हैं और द्रव्य मिथ्यात्वादि जो कर्म बन्ध हैं वह भी भाव मिथ्यात्व आदि के उत्पत्ति में हेतु हैं, इस तरह परस्पर में हेतु हेतुमद्भाव पाया जाता है । यदि इनमें परस्पर में हेतु हेतुमद्भाव नहीं माना जाय तो मुक्त जीवों के भी बन्धका प्रसंग आयेगा । भाव मिथ्यात्वादि बन्धके द्रव्य मिथ्यात्वादिक अस्वसंवेदित कारक हेतु हैं और द्रव्य मिथ्यात्व आदि बन्धके भावमिथ्यात्वादिकारक हेतु हैं । इस प्रकार इन विजातियों का परस्पर में हेतु हेतुमद्भाव कहा गया है । तथा सजातियों का भी परस्पर में हेतु हेतुमद्भाव जानना चाहिए, क्योंकि पूर्व पूर्वके द्रव्य भाव मिथ्यादर्शनादिक उत्तर - उत्तर द्रव्य भाव मिथ्यादर्शनादि के कारण हुआ करते हैं, यह बात सुप्रतीत ही है । अब इस विषय का विवेचन समाप्त करते हैं । अब बन्धकी प्रतिपत्ति के लिये कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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