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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विवक्षितत्वाच्च । संयतासंयतस्याऽविरतिविरतिमिश्रा प्रमादकषाययोगाश्च बन्धस्य हेतवो भवन्ति । प्रमत्तसंयतस्य प्रमादकषाययोगाः । अप्रमत्ताऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायाणां चतुर्णा द्वौ कषाययोगौ। उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवलिनामेक एव योगः। अयोगकेवली अबन्धहेतुः । पञ्च मिथ्यादर्शनादिविकल्पानां प्रत्येक बन्धहेतुत्वमवगन्तव्यम् । सर्वेषां मिथ्यादर्शनानामविरतिभेदानां च हिंसादीनामेकस्मिन्नात्मनि युगपदसम्भवात् । ततः सिद्धमेतन्मिथ्यादर्शनादयः कथंचित्समस्ता व्यस्ताश्च बन्धहेतवो भवन्तीति । तत्र कषायपर्यन्ताः स्थित्यनुभागबन्धहेतव । योगस्तु प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुरवसेयः । योगा एव कर्मास्रवत्वेनोक्ता बन्धहेतवो युक्ता मिथ्यादर्शनादीनां तद्विकल्पत्वादित्यप्यनेनापास्तं, पञ्चविधबन्धकारणनिर्देशस्य यथोक्तप्रयोजनापेक्षितत्वात् । तथा मिथ्यादर्शनादयो द्रव्यभाव
होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं करके मिथ्यादर्शन का अभाव माना है। संयतासंयत नामके पांचवें गुणस्थान में अविरति और विरति मिश्ररूप है तथा प्रमाद कषाय और योग ये बन्ध हेतु पाये जाते हैं । (प्रमत्त संयत में प्रमाद कषाय और योग ये बन्ध हेतु हैं । अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपराय इन चार गुणस्थानों में कषाय और योग ये दो बन्ध हेतु हैं । उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के एक योग ही बन्ध हेतु है । अयोग केवली बन्ध हेतु से रहित हैं। मिथ्यादर्शन आदि जो पांच बन्ध हेतु कहे हैं इनमें एक-एक में बन्धका हेतुपना पाया जाता है तथा इनके जो उत्तर भेद हैं उनमें भी प्रत्येक में बन्ध हेतुत्व है । क्योंकि एक साथ एक आत्मा में सभी मिथ्यादर्शनों के भेद हिंसादि सभी अविरतियां सम्भव नहीं हैं। उससे निश्चित होता है कि मिथ्यादर्शनादि समस्त रूप से बन्ध हेतु हैं तथा व्यस्त रूप से भी बन्ध हेतु होते हैं। उनमें भी मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद और कषाय ये तो स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध इन दोनों बन्धों के हेतु हैं तथा योग प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध इन दो बन्धों का हेतु है ।
'कायवाङ मनस्कर्म योगः स आस्रवः' इस प्रकार पहले योग को आस्रवरूप कहा था अत: योग ही बन्ध हेतु है, मिथ्यादर्शनादि तो उसी के विकल्प हैं ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि पांच प्रकार के बन्ध के कारण बतलाने में प्रयोजन है ऐसा अभी समझा दिया है अर्थात् गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धके कारण बताना है अतः बन्धके कारण पांच बतलाये गए हैं तथा परवादी की मान्यता का निरसन करने के लिए भी पांच बन्ध हेतु कहे हैं।