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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४५३ योगश्च मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः । बन्धो वक्ष्यमाणलक्षणः । हेतुशब्द: कारणवाची। बन्धस्य हेतवो बन्धहेतव इति विग्रहः कार्यः । मिथ्यादर्शनादिवचनाद्विपर्ययमात्रादविद्यातृष्णामात्राद्वा बन्ध इति निरस्तम् । बन्धहेतव इति वचनादहेतुकबन्धनिवृत्तिबन्धाभावनिवृत्तिश्च कृता भवति । मिथ्यादर्शनवचनात्तत्सहचारिणो मिथ्याज्ञानस्याप्यत्र बन्धहेतुत्वमवगन्तव्यम् । न च मिथ्यादर्शनज्ञानयोरैक्यमेवेति वक्तु शक्यं-तत्त्वाऽश्रद्धानाऽनवबोधलक्षणभेदाद्भ दोपपत्तेः । ननु सम्यग्दर्शनादीनां मोक्षहेतूनां त्रैविध्यात्तद्विपरीतरूपा बन्धहेतवोऽपि त्रय एव युक्ता इति चेत्सत्यमुक्त किंतु प्रयोजनापेक्षया पञ्च कथिताः । प्रयोजनश्च गुणस्थानभेदेन बन्धहेतुविकल्पयोजनं बोद्धव्यम् । तेनाद्ये मिथ्याष्टिगुणस्थाने पञ्चापि बन्धहेतवः सन्ति। सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यङि मथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिष्वविरत्यादयश्चत्वारः प्रत्ययाः सन्ति । तत्र मिथ्यादर्शनस्याभावात्सम्यङि मथ्यादृष्टिगुणस्थाने तस्यांशेन सतोप्य मिथ्यादर्शन आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना । बंधका लक्षण आगे कहेंगे । हेतु शब्द कारणवाची है । बन्धस्य हेतवः बन्धहेतवः ऐसा समास है। ये मिथ्यादर्शन आदि बन्ध के कारण हैं ऐसा निश्चय होने पर बन्धके विषय में परवादी लोगों ने जो कारण कहे हैं उनका खण्डन हो जाता है, उनके यहां पर किसी ने विपर्यय से बन्ध माना है तो किसी ने अविद्या तृष्णा से बन्ध माना है। 'बन्ध हेतवः' इस वाक्य से परवादी की जो मान्यता है कि बन्धका कोई हेतु नहीं है बंध स्वतः ही होता है, अथवा कोई मानता है कि जीवों के बन्ध नहीं होता वे सदा कर्मों से मुक्त ही हैं इत्यादि । सो ये सब मान्यताएं बन्ध के हेतु बतलाकर खण्डित की गई हैं। मिथ्यादर्शन के ग्रहण से उसका सहचारी मिथ्याज्ञान का भी यहां ग्रहण किया है वह भी बन्धका हेतु है। मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान ये दोनों एक ही हैं ऐसा भी नहीं कहना, इनमें लक्षण भेद हैं-तत्त्वों का अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है और अनवबोध-तत्त्वबोध नहीं होना मिथ्याज्ञान है, इस तरह लक्षण भेद से इनमें भेद है । शंका-मोक्ष के हेतु तीन माने हैं उनसे विपरीत बन्ध के हेतु भी तीन ही मानने चाहिए ? समाधान-ठीक कहा ! किन्तु प्रयोजन की अपेक्षा पांच कहे हैं। यहां पर प्रयोजन यह है कि गुणस्थानों के भेदों की अपेक्षा बन्ध हेतु के भेद करना। अब इसी को बतलाते हैं-पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पांचों बन्ध हेतु होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानों में अविरति आदि चार बन्ध हेतु हैं। सम्यग्मिथ्यात्वनामा तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का अंश
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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