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________________ ४५२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सत्योऽसत्यमृषा चेति चत्वारो मनोयोगाः । तथा चत्वारो वाग्योगाः। औदारिक औदारिकमिश्रो वैक्रियिको वैक्रियिकमिश्रः कार्मणश्चेति पञ्च काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः । आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते उदयसम्भवात् । पञ्चदशापि योगा भवन्ति । भावकायविनयेपिथभैक्षशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयमोत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यामाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यादिविषयाऽनुत्साहभेदादनेकविधः प्रमादोऽवसेयः । स्यान्मतं ते-प्रमादस्याप्यविरतिरूपत्वात् पृथगुपादानमनर्थकमिति । तन्न-अविरत्यभावेऽपि प्रमत्तसंयतस्य विकथाकषायेन्द्रियनिद्राप्रणयलक्षणपञ्चदशप्रमाददर्शनात्कथञ्चिद्भेदोपपत्तेः । तहि कषायाविरत्योरुभयोरपि हिंसापरिणामरूपत्वाद्भदाभावोस्त्विति चेत्तन्न कार्यकारणभावेन भेदोपपत्तेः । कारणभूता हि कषायाः कार्यात्मिकाया हिंसाद्यविरतेरर्थान्तरभूता इति नास्ति दोषः। मिथ्यादर्शनं चाविरतिश्च प्रमादश्च कषायश्च सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और असत्यमषामनोयोग ये चार मनोयोग हैं । तथा वचनयोग भी चार हैं । औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण इसप्रकार काययोग पांच प्रकार का है । प्रमत्त संयत गुणस्थान में आहारक काय और आहारक मिश्रकाय योग ये दो योग होते हैं, उससे कुल योग पंद्रह भी हैं। भावशुद्धि, विनयशुद्धि, कायशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, शयनासनशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि और वाक्यशुद्धि ये आठ शुद्धियां हैं इनके निमित्त से संयम आठ प्रकार का हो जाता है। तथा उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं इन सबके प्रति उत्साहित नहीं होना प्रमाद कहलाता है इनकी अपेक्षा प्रमाद भी अनेक प्रकार का है। प्रश्न-प्रमाद अविरतिरूप है अतः उसका पृथक् ग्रहण व्यर्थ है ? उत्तर-ऐसा नहीं कहना। अविरति के अभाव होने पर भी प्रमत्त संयत के चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियां, निद्रा और प्रणय स्वरूप पंद्रह प्रमाद पाये जाते हैं अतः अविरति और प्रमाद में कथंचित् भेद माना गया है । प्रश्न-तो फिर कषाय और अविरति इन दोनों में हिंसा परिणाम समान होने से अभेद मानना चाहिए ? उत्तर-यह भी ठीक नहीं है, यहां कार्य कारण रूप भेद पाया जाता है, अर्थात् कारण कषाय है और कार्यात्मक हिंसादि अविरति है इस दृष्टि से दोनों में अर्थान्तरत्व होने से कषाय और अविरतिको पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है अतः कोई दोष नहीं है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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