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अष्टमोऽध्यायः
[ ४५१ तिर्यङ म्लेच्छशबरपुलिन्दादिपरिग्रहादनेकविधं भवति । अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनमवगन्तव्यम् । एकान्तमिथ्यादर्शनं विपरीतमिथ्यादर्शनं संशयमिथ्यादर्शनं वैनयिकमिथ्यादर्शनमज्ञानिकमिथ्यादर्शनं चेति । तत्रेदमेवेत्थमेवेति धमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः । पुरुष एवेदं सर्वमिति वा नित्य एव वाऽनित्य एव वेत्यादिरेकान्तः । सग्रन्थोपि सन्निर्ग्रन्थः केवल्यपि कवलाहारी स्त्री च सिध्यतीत्येवमादिविपर्ययः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः किं स्याद्वा न वेत्युभयपक्षपरामर्शः संशयः । सर्वदेवतानां सर्वसममानां च समदर्शनं वैनयिकत्वम् । हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् । अविरतिदिश विधा भवति । कुतः ? पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायचक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शन नो इन्द्रियेषु हननाऽसयमनाsविरतिभेदात् । अनन्तानुबन्ध्यादिविकल्पाः क्रोधादयः षोडशकषाया हास्यादयो नव नोकषाया अपि कषायग्रहणेनैवात्र संगृहीता ईषद्भदस्याभेदत्वादिति पञ्चविंशतिः कषायाः । सत्योऽसत्यः सत्याऽ
मिथ्यादर्शन है उसके भी बहुत से भेद सम्भव हैं। आगे इन्हीं को बताते हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी-तिर्यंच, म्लेच्छ, शबर, पुलिन्द इत्यादि जीवों द्वारा ग्रहण किये जाने की अपेक्षा नैसर्गिक मिथ्यात्व के अनेक भेद हैं ।
दूसरे प्रकार से मिथ्यात्व के पांच भेद हैं-एकान्त मिथ्यादर्शन, विपरीत मिथ्यादर्शन, संशय मिथ्यादर्शन, वैनयिक मिथ्यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्यादर्शन । एकान्त मिथ्यात्व का स्वरूप-यही है, ऐसा ही है, इसप्रकार धर्म और धर्मी के विषय में अभिप्राय होना एकान्त मिथ्यात्व है। अथवा यह सर्व जगत् पुरुष ही है, सर्व वस्तु नित्य ही है अनित्य ही है इत्यादि भाव एकान्त मिथ्यात्व है । विपरीत मिथ्यात्व-सग्रन्थ होकर भी निग्रन्थ है केवली जिन कवलाहारी होते हैं, स्त्री मोक्ष जाती है इत्यादि अभिप्राय होना विपरीत मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है अथवा नहीं है इत्यादि उभय पक्षको ग्रहण करना संशयमिथ्यात्व है। सर्व देवता, सर्व समय-सर्व मतों को समान मानना, विनय करना वैनयिक मिथ्यात्व है। हित और अहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यात्व है ।
अविरति बारह प्रकार की है-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और बसों का घात करना तथा चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना और स्पर्शनेन्द्रिय एवं नो इन्द्रिय-मनको नियमित नहीं करना। अनन्तानुबन्धी आदि क्रोधादि कषायों के सोलह भेद एवं हास्यादि नव नोकषायों का ग्रहण कषाय शब्द से हो जाता है। क्योंकि ईषद् कषाय (हास्यादि) का क्रोधादिकषाय से अभेद होने से कषायों के कुल भेद पच्चीस होते हैं ।