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________________ ४५० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो स्कर्म योग इत्यत्र । मिथ्यादर्शनं द्वधा व्यवतिष्ठते । कुतः ? नैसर्गिकपरोपदेशनिमित्तभेदात् । तत्र निसर्गः स्वभाव उक्तः । निसर्गाज्जातं नैसर्गिकम् । परोपदेशमन्तरेणान्तरङ्गमिथ्यात्वकर्मोदयवशाद्यदाविर्भवति तत्त्वार्थाऽश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकमित्यर्थः । यत्परोपदेशनिमित्त मिथ्यादर्शनं तच्चतुर्विधम्क्रियावाद्यक्रियावाद्यज्ञानिकवैनयिकमतविकल्पात् । तत्र चतुरशीतिः क्रियावादा इति कौत्कलकण्ठविद्धिकौशिकादिमतभेदात् । अशीतिशतमक्रियावादानां मरीचिकुमारोलूककपिलगार्यव्याघ्रभूत्यादिमतविकल्पात् । अज्ञानिकवादाः सप्तषष्ठिसङ्ख्याः शाकल्यवाष्कलकुन्थुमिशात्यमुग्रीप्रभृतिदर्शनभेदात् । वैनयिकास्तु द्वात्रिंशत्सङ्ख्या भवन्ति । कुतः ? वशिष्टपराशरजतुकर्णवाल्मीकिप्रभृतिमतभेदात् । त एते मिथ्योपदेशभेदाः समुदितास्त्रीणि शतानि त्रिषष्टय त्तराणि भवन्ति । एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शनविकल्पा अन्ये च सङ्ख्य यास्तज्ज्ञैर्योज्याः । परिणामविकल्पादसङ्ख चयाश्च भवन्ति । अनुभागभेदादनन्तपरिमाणश्च जायन्ते । यन्नैसर्गिकमिथ्यादर्शनं तदप्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंज्ञि प्रश्न-इनका कथन कहां पर है ? उत्तर- 'कायवाङ मनस्कर्म योगः' इस सूत्र में योग का कथन पूर्व में ही हो चुका है। मिथ्यादर्शन के दो भेद हैं-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । स्वभाव को निसर्ग कहते हैं । निसर्ग से जो होवे वह नैसर्गिक कहलाता है । अर्थात् परके उपदेश के बिना अंतरंग में मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो प्रमट होता है ऐसा तत्त्वार्थ का अश्रद्धा लक्षण वाला जो मिथ्यात्व है वह नैसर्गिक कहा जाता है। तथा जो परके उपदेश से होने वाला मिथ्यात्व है उसके चार भेद हैं-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानिक और वैनयिक । उनमें क्रियावादी के चौरासी भेद हैं, कौत्कल, कण्ठविधि, कौशिक आदि के मतों की अपेक्षा उक्त भेद होते हैं। अक्रियावादी के अस्सी भेद हैं, मरीचिकुमार, उलक, कपिल, गार्य, व्याघ्रभूति आदि के मतों के निमित्त से ये भेद होते हैं । अज्ञानिकवाद सड़सठ हैं, शाकल्य, बाष्कल, कुन्थुमि, शात्यमुग्री इत्यादि के मतों के निमित्त से ये भेद होते हैं। वैनयिक के बत्तीस भेद हैं, वशिष्ठ, पाराशर, जतूकर्ण, वाल्मीकि इत्यादि के मतों के निमित्त से ये भेद होते हैं । ये सब मिथ्या मत मिलकर तीनसौ त्रेसठ होते हैं । ( इन तीनसौ त्रेसठ मतों का सुन्दर विवेचन कर्मकांड में अवलोकनीय है) इस प्रकार परके उपदेश के निमित्त से होने वाले मिथ्यादर्शन के ये भेद जानने तथा अन्य भी संख्यात भेद मिथ्यात्व के स्वरूप को जानने वाले पुरुषों द्वारा लगा लेने चाहिए । परिणामों की अपेक्षा मिथ्यात्व के असंख्येय भेद हैं और अनभाग के निमित्त से होने वाले परिणामों की अपेक्षा अनन्त भेद भी होते हैं। जो नैसर्गिक
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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