________________
अथ अष्टमोऽध्यायः
एवमध्यायद्वयेनास्रवपदार्थोऽशुभः शुभश्च व्याख्यातः । इदानीमवसरप्राप्तं बन्धं व्याचक्ष्महे । तस्य च मोक्षवत्कारणव्यतिरेकानुपपत्तेः कार्यात्पूर्वकालभावित्वाच्च कारणस्येति कारणोपन्यास एव तावतिक्रयते
मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥२॥ क्व पुनरेते मिथ्यादर्शनादयः सप्रपञ्चा उक्ता इति चेदुच्यते-प्रास्रवविधाने पञ्चविंशतिः क्रिया उक्ताः । तास्वन्तर्भूतं मिथ्यादर्शनं तावदुक्त मिथ्यादर्शनक्रियेति । यत्र विरतियाख्याता तत्प्रतिपक्षभूताऽविरतिरपि तत्रैव वणिता। आज्ञाव्यापादनाऽनाकांक्षाक्रिययोरन्तर्भूतः प्रमादः बोद्धव्यः। स च प्रमादः कुशलकर्मस्वनादर उच्यते । कषायाः क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसज्वलनविकल्पा इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रिया इत्यत्रैवोक्ताः । योगश्च कायादिविकल्पः क्व उक्तः ? कायवाङ मन
इसप्रकार दो अध्यायों में शुभास्रव पदार्थ और अशुभास्रव पदार्थ कहा है। अब बन्ध पदार्थ का अवसर है उसका कथन प्रारम्भ करते हैं। जैसे मोक्ष कारण के बिना नहीं होता, वैसे बन्ध भी कारण के बिना नहीं होता, तथा कार्य के पहले कारण होता है, इस न्याय से बन्ध रूप कार्य का कारण सर्व प्रथम बतलाते हैं
सूत्रार्थ-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके कारण हैं । प्रश्न-ये मिथ्यादर्शनादि सविस्तर कहां पर कहे गये हैं ?
उत्तर-आस्रव का कथन करते समय पच्चीस क्रियायें कही थीं। उन क्रियाओं में अन्तर्भूत मिथ्यादर्शन स्वरूप मिथ्यादर्शन क्रिया बताई थी। जहां पर विरति का कथन किया था वहीं पर उसके प्रतिपक्षभूत अविरति का वर्णन भी कर लिया था। आज्ञाव्यापादन और अनाकांक्षा क्रिया में प्रमाद गर्भित होता है । कुशल क्रिया में अनादर होना प्रमाद है । अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायों में प्रत्येक के क्रोधादि चार चार भेद हैं । 'इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रिया' इत्यादि सूत्र में कषायों का वर्णन हुआ है । योग के काययोग इत्यादि भेद हैं ।