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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो सप्तवान्तरायाश्चागमान्तरोक्ताः सन्ति । विशेषतस्तु काकाऽमेध्यादयो द्वात्रिंशत् नखकेशादयो बहुप्रकाराश्च केषाञ्चिदुत्कृष्टश्रावकारणां भोजनविघ्ना भवन्ति । तेषु चैकादशस्वाद्याः षछावका बहुसावद्या जघन्या: । तदुत्तरास्त्रयोऽल्पसावद्या मध्यमाः। अनुमत्युद्दिष्ट विरतास्तु द्विप्रकारा अप्यतिनिरस्तसावद्यत्वादुत्कृष्टा इत्यलमतिविस्तरसंकथया ।
शशधरकरनिकरसतारनिस्तलतरलतलमुक्ताफलहारस्फारतारानिकुरुम्बबिम्बनिर्मलतरपरमोदार शरीरशुद्धध्यानानलोज्ज्वलज्वालाज्वलितघनघातीन्धनसङ्घातसकलविमलकेवलालोकितसकललोकालोकस्वभावश्रीमत्परमेश्वरजिनपतिमतविततमतिचिदचित्स्वभावभावाभिधानसाधितस्वभावपरमाराध्यतममहासद्धान्तः श्रीजिनचन्द्रभट्टारकस्तच्छिष्यपण्डितश्रीभास्करनन्दिविरचितमहाशास्त्रतत्त्वार्यवृत्ती सुखबोधायां सप्तमोऽध्यायस्समाप्त ।
देना चाहिए । आगमान्तर में सामान्य से श्रावकों के लिये सात अन्तराय बतलाये हैं वे इस प्रकार हैं-चर्म, अस्थि, रक्त, पीप, मांस इत्यादि । विशेष को अपेक्षा से काक मेध्य आदि बत्तीस अन्तराय, नख केश आदि चौदह मल दोष हैं इत्यादि बहुत से दोष हैं, इनका किन्हीं उत्कृष्ट श्रावकों को भी त्याग करना चाहिए अर्थात् इन दोषों के आने पर भोजन छोड़ देना चाहिए । अभिप्राय यह है कि जो क्षुल्लक और ऐलक रूप उत्कृष्ट श्रावक हैं जो कि चर्या विधि से आहार को जाते हैं उन्हें मुनिके समान बत्तीस अन्तराय, सोलह उद्गमादि दोषों को टालकर आहार करना चाहिए।
इन ग्यारह स्थान वाले श्रावकों में जो आदि के छह स्थान वाले श्रावक हैं, वे बहुसावधयुक्त होने से जघन्य श्रावक कहे जाते हैं । सातवें स्थान से लेकर नौवें स्थान तक के श्रावक मध्यम कहलाते हैं, क्योंकि अल्पसावद्ययुक्त हैं। अनुमतिविरत और उहिष्टविरत श्रावक ये दोनों भी सावध के त्यागी होने से उत्कृष्ट कहलाते हैं। अब इस विषय को समाप्त करते हैं।
जो चन्द्रमा को किरण समूह के समान विस्तीर्ण, तुलना रहित मोतियों के विशाल हारों के समान एवं तारा समूह के समान शुक्ल निर्मल उदार ऐसे परमौदारिक शरीर के धारक हैं, शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि की उज्ज्वल ज्वाला द्वारा जला दिया है घाती कर्म रूपी ईन्धन समूह को जिन्होंने ऐसे तथा सकल विमल केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण लोकालोक के स्वभाव को जानने वाले श्रीमान परमेश्वर जिनपप्ति के मत को जानने में विस्तीर्ण बुद्धि वाले, चेतन अचेतन द्रव्यों को सिद्ध करने वाले परम आराध्य भूत महासिद्धान्त ग्रन्थों के जो ज्ञाता हैं ऐसे श्री जिनचन्द्र भट्टारक हैं उनके शिष्य पंडित श्री भास्करनंदी विरचित सुख बोधा नामवाली महा शास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में सातवां अध्याय पूर्ण हुआ।