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सप्तमोऽध्यायः
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दरपूरणमात्र भैक्षमादाय क्वचिद्धरीतक्यादिचूर्ण विध्वस्तं प्रासुकं जलं याचयित्वा यत्नेन शोधयित्वा च भुञ्जीत । ततः पात्रं प्रक्षाल्य गुरुसमीपं गच्छेत् । अथवा यतिजन पृष्ठतश्चर्यायां प्रविश्य भुक्त्वा गुरुसमीपे चतुर्विधं प्रत्याख्यानं च गृहीत्वा सर्वमालोच्य यदेवं प्रथमोऽयमुत्कृष्टः श्रावक उक्तः । द्वितीयो - प्येवमेव भवेत् । विशेषस्त्वयं यदुत कौपीनमात्रपरिग्रहो नियमेन वालोत्पाटनकारी पिञ्छप्रतिलेखनधारी पाणिपुट भिक्षाहारी स्यात् । दिनप्रतिमा वीरचर्या त्रिकालयोगेषु सिद्धान्त रहस्य ग्रंथाध्ययने च देशसंयतानामधिकारो नास्ति । एवमेकादशगुणस्थाने उद्दिष्टविरतो द्विप्रकारः श्रावको बोद्धव्यः । एवमुक्त ेष्वेकादशगुणस्थानेषु मध्ये प्रथममपि गुणस्थानं रात्री भोजनं कुर्वतो न व्यवतिष्ठत इति रात्रौ भोजनवर्जनं श्रेयः । रात्रौ हि चर्मास्थिकीटदर्दुरभुजंगकेशादयोऽशनमध्ये पतिता न दृश्यन्ते । दीपोद्योते च क्रियमाणे दृष्टिरागमोहिताश्चतुरिन्द्रिया भाजने निपतन्ति । तस्मादिहात्मविनाशं परत्र च पापवशेनाशुभां गतिं परिहरता रात्रिभोजनं च परिहर्तव्यम् । सामान्यतः श्रावकाणां चर्मास्थिरुधिरपूयमांसादय:
किसी घर में हरड आदि से प्रासुक हुए जल की याचना करके प्रयत्न से अन्नका शोधन कर भोजन करता है, फिर पात्रको धोकर मांजकर गुरु के निकट जाता है । अथवा मुनिजनों के आहार के लिए निकलने पर उनके पीछे चर्या कर भोजन करता है पुनः गुरु के निकट आकर चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करता है आहार में कुछ दोष लगा हो तो उसकी आलोचना करता है । इसप्रकार की विधि करने वाला उद्दिष्ट प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक का प्रथम भेद है । दूसरा भेद भी इस तरह ही है कुछ विशेषता है सो बताते हैं - यह द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक केवल लंगोट रखता है नियम से केशलोंच करता है पिच्छी लेता है हाथ में भोजन करता है चर्या से आहार लेता है । देशव्रती श्रावकों को दिन में प्रतिमायोग लेना वर्जित है तथा वीर चर्या, अभ्रावकाश आदि तीन योग, सिद्धान्त ग्रंथ, प्रायश्चित्त ग्रंथ का अध्ययन इन सर्व कार्यों को करने का अधिकार देश संयमी को नहीं है । इसप्रकार ग्यारहवें स्थान में उद्दिष्ट त्यागी उत्कृष्ट श्रावक के दो भेद जानने चाहिये । इन ग्यारह स्थानों में से जो पहला स्थान है उसका धारक श्रावक रात्रि भोजन नहीं कर सकता अतः रात्रि भोजन त्याग श्रेयस्कर है । क्योंकि रात्रि में चर्म, अस्थि, कीड़े, मेंढ़क, सर्प, केश इत्यादि पदार्थ जाय तो दिखायी नहीं देते हैं । यदि दीपक का प्रकाश किया जाय तो लंपट हुए चतुरिन्द्रिय जीव बर्त्तन में गिर जाते हैं, उससे इस लोक में तो अपना नाश हुआ, और परलोक में पाप के कारण अशुभगति होगी ऐसा निश्चय कर इन दोषों का परिहार अर्थात् नीच गति में गमनादिका परिहार करने के लिये रात्री भोजन छोड़
भोजन में गिर
नेत्र के विषय में