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________________ ४४६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सर्वथा वर्जयेत्', स्त्रीकथादिनिवृत्तश्च स्यात्तदा स ब्रह्मचारीति सप्तमो निगद्यते । यदि च बहु स्तोकं वा गृहारम्भं वर्जयेत्तदा स प्रारम्भनिवृत्तमतिरष्टमः श्रावको भण्यते । परिमितं स्वप्रयोजनधर्मसाधनवस्त्रोपकरणादिकं मूर्छारहितं मुक्त्वा शेषं परिग्रहं यो वर्जयेत्स परिग्रहविरत इति नवम: श्रावको भवति । स एव यदि पृष्टोऽपृष्टो वा निजः परैर्वा गृहकार्येऽनुमतिं न कुर्यात्तदाऽनुमतिविरत इति दशमः श्रावको निगद्यते । उद्दिष्ट पिण्डविरतिलक्षणत्वैकादशे गुणस्थाने उत्कृष्ट श्रावको द्विविधो भवति । तत्रैकस्तावदेकवस्त्रधारी स्वकेशानामपनयनं कर्तर्या क्षुरेण वा कारयेत् । स्थानाऽऽसनशयनादिषु च प्रयतात्मा मृदुनोपकरणेन प्रतिलिखति । पाणिपात्रे भाजने वा समुपविष्टः सन्नेकवारं भुक्त । पर्वसु चोपवासं नियमतश्चतुर्विधं कुरुते । गृहीतसुपात्रश्चयां प्रविष्टश्च प्रांगणे स्थित्वा धर्मलाभं सकृदुच्चार्य भिक्षां याचते । अथवा विशिष्टशक्तिश्चेद्भिक्षार्थी गृहान्तरेषु परिभ्रमन्मौनेन स्वकायमानं प्रदर्शयेत् । अन्तराले यदि केनचिद्भोजनाय विधृतो भवेत्तदा स्वपात्रगतं भुक्त्वा शेषं तदीयं भुञ्जीत । न चेदेवं तर्हि परिभ्राम्योमें और दिन में मन वचन और काय से तथा कृत कारित अनुमोदना से मैथुन का सर्वथा त्याग कर देता है, स्त्री कथा आदि से निवृत्त होता है तो वह ब्रह्मचारी इस नाम वाली सातवीं प्रतिमा वाला बन जाता है। जब वही श्रावक बहुत तथा अल्प गृह सम्बन्धी आरम्भ को छोड़ देता है तब वह आरम्भ विरत नामा आठवां स्थान पाता है। अपने प्रयोजनभूत वस्त्रादि तथा धर्म के साधनभूत उपकरण को बिना लालसा के रखता है और शेष सर्व परिग्रह को त्याग देता है वह श्रावक परिग्रह विरत नाम वाला नौवीं प्रतिमाधारी होता है । वही श्रावक अपने व्यक्ति द्वारा या परव्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर या नहीं पूछे जाने पर भी घर सम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं देता है वह अनुमति विरत नामा दशम स्थान को प्राप्त करता है। उद्दिष्ट आहार का त्यागी ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक के दो भेद हैं। उनमें एक भेद का वर्णन करते हैं जो एक वस्त्र धारक है, अपने केशों को कैंची या छुरी से हटाता है, स्थान आसन शयनादि में प्रयत्नपूर्वक मृदु उपकर द्वारा मार्जन कर बैठना आदि क्रियायें करता है, हाथ में अथवा बर्तन में बैठकर एक बार भोजन करता है। पर्वके दिनों में चार प्रकार के आहार का त्याग कर उपवास नियम से करता है । पात्र लेकर चर्या के लिये जाता है गृहस्थ के आंगन में खड़े होकर धर्म लाभ ऐसा एक बार कहकर भिक्षा की याचना करता है, अथवा यदि विशिष्ट शक्ति है तो वह भिक्षार्थी गृहान्तरों में मौन से घूमता है केवल शरीर को दिखाता है यदि बीच में किसी ने भोजन के लिये रोका तो अपने पात्र में जो मध्य के घरों में मिला था उस अन्नको पहले खाता है पुनः उस घरका भी खाता है । अथवा ऐसा नहीं करता है तो परिभ्रमण कर उदर भरने लायक भोजन को लेकर
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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