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सप्तमोऽध्यायः
[ ४४३ सम्यग्दर्शनज्ञानदेशसंयमसंयुत एकादशगुणस्थानवर्ती श्रावकः कथ्यते । जघन्यपात्रं तु सम्यग्दर्शनज्ञानगुणद्वयान्वितोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरुच्यते । कुपात्रमप्यागमान्तरे प्रतिपादितमस्ति । तत्तु जिनागमोक्तव्रतशीलतपोयुक्त सम्यग्दर्शनादिगुणविरहितम् । तस्यापि दानं दत्तं पुण्यं जायते । सम्यक्त्ववतशीलतपोभावनावजितं पूनरनवरतपापशीलं नैव पात्रं भवति । तस्मिन्दत्तं न पूण्याय कल्पते । परस्परतो विशिष्यते विशिष्टिा विशेषः । स च गुणकृतो भेद उच्यते । तस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धो भवति । विधिविशेषो द्रव्यविशेषो दातृविशेषः पात्रविशेष इति । विधिश्च द्रव्यं च दाता च पात्रं च विधिद्रव्यदातृपात्राणि । तेषां विशेषो विधिद्रव्यदातृपात्रविशेष इति समासश्च विज्ञेयः। तत्र विधिविशेषः प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो वेदितव्यः । दीयमानेऽन्नादौ प्रतिग्रहीतुस्तपःस्वाध्यायपरिणामविवृद्धिहेतुत्वादि व्यविशेष इति भाष्यते । क्षमाऽनसूयादियुक्तत्वरूपो दातृविशेष उक्तः । मोक्षकारणसम्यगदर्शनादिगुणयोगित्वस्वभावः पात्रविशेषोऽपि प्रतिपादितो बोद्धव्यः । ततश्च विध्यादिविशेषाद्धेतोस्तस्य मुनि महाराज उत्तम पात्र हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान और एक देश संयम युक्त ग्यारह प्रतिमा तक प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक मध्यम पात्र है । सम्यग्दर्शन और ज्ञान इन दो गुणों से युक्त असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। आगमान्तर में कुपात्र भी बतलाया है, जिनेन्द्र द्वारा कहे गये आगम में जो व्रत शील और तप हैं उनका पालन करता है किन्तु सम्यग्दर्शन रहित है उसको कुपात्र कहते हैं । उसके दान देने से भी पुण्य होता है । जो व्यक्ति सम्यक्त्व, व्रत, तप से रहित है और सतत पाप शील है ऐसा व्यक्ति पात्र नहीं होता । ऐसे व्यक्तिको दान देने से पुण्य नहीं होता। परस्पर में जो विशिष्ट होता है वह विशेष कहलाता है। वह विशेष गुणों के निमित्त से होता है। विशेष शब्द प्रत्येक के साथ जोड़ना चाहिए-विधि विशेष, द्रव्य विशेष, दाता विशेष
और पात्र विशेष । सूत्रोक्त विधि आदि पदों में द्वन्द्व समास है पुनः विशेष शब्द तत्पुरुष समास द्वारा जोड़ा है। विधि विशेष क्या है सो बताते हैं-प्रतिग्रह-पड़गाहन आदि क्रिया में आदर होना विधि विशेष है और अनादर करना विधि की कमी कहलायेगी । जो आहारादि साधु को दिया जा रहा है उस आहारादि से साधु जनों के तप स्वाध्याय और परिणाम विशुद्धि होना द्रव्यविशेष कहलाता है। दान देने वाले दाता में क्षमा होना, ईर्ष्या नहीं होना इत्यादि दाता की विशेषता है । मोक्षके कारण स्वरूप सम्यग्दर्शन आदि गुणों से युक्त होना पात्र विशेष कहलाता है । इन विधि आदि विशेषों के निमित्त से दान के फल में विशेषता आती है, जिस प्रकार पृथिवी-खेत अच्छा होना, ऊसर नहीं होना, जल आदि का होना इत्यादि कारण विशेषों के होने पर नाना प्रकार धान्य बीजों की बहुत-बहुत उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार विधि अच्छी होने से