SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती पर्यायवाचिनो ग्रहण मिहाभिप्रतम् । अतिसर्गस्त्यागः समर्पणमित्यनर्थान्तरम् । ततोऽनुग्रहार्थं यः स्वस्यातिसर्गस्तद्दानमितीष्यते । तद्विपरीतलक्षणस्य दानत्वानुपपत्तेरन्यथातिप्रसङ्गात् । अत्राहयदुक्त भवता दानं तत्किमविशिष्टं फलमाहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥ विधिनविधानक्रम उच्यते । स च संक्षेपेण नवविधः-प्रतिग्रहोच्चदेशस्थापनपादप्रक्षालनार्चनप्रणमनमनोवाक्कायशुद्धित्रयाशनशुद्धिभेदात् । द्रव्यं पात्राय दीयमानं योग्यमाहारौषधशास्त्रप्रतिश्रयभेदाच्चतुर्विधम् । दाता दायकः पुरुषः । स च समासतः सप्तविध उच्यते-श्रद्धाता भक्तिमांस्तुष्टिमान्विज्ञान्यलुब्धः क्षमावान् सत्त्वाधिकश्चेति । आहारादिद्रव्यं यस्मै दीयते तत्पात्रम् । तच्चोत्तममध्यमजघन्यभेदात्त्रिविधम् । तत्रोत्तमपात्रं सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्रगुणत्रययुक्तो महर्षिरुच्यते । मध्यमपात्रं त्याग को कहते हैं, त्याग, समर्पण ये इसके पर्यायवाची शब्द हैं । अनुग्रह के लिये अपने धनका त्याग करना दान है ऐसा अर्थ है। इससे विपरीत भाव या क्रिया होवे तो वह दान नहीं कहलाता, अर्थात् अपना परका जिसमें उपकार न हो वह दान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । दानका यही लक्षण है अन्यथा लक्षण करने में अति प्रसंग होगा। प्रश्न- यह जो आपने दान का स्वरूप कहा है, इसका फल क्या समानरूप से होता है या कुछ विशेषता होती है ? उत्तर-अब इसीको सूत्र द्वारा बतलाते हैं सूत्रार्थ-विधि विशेष, द्रव्य विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेष से दान में विशेषता आती है। दानके विधान के क्रमको 'विधि' कहते हैं। वह विधि संक्षेप से नौ प्रकार की है-प्रतिग्रह (पड़गाहन) उच्चदेश स्थापन अर्थात् उच्चस्थान पर-पाटे आदि पर बैठाना, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि और भोजन शुद्धि । पात्र के लिये (साधुजनों के लिये) जो वस्तु दी जाती है वह द्रव्य या पदार्थ आहार, औषध, शास्त्र और प्रतिश्रयरूप चार प्रकार का है । यह द्रव्य है। दायक या दाता दान देने वाले पुरुष को कहते हैं । दाता संक्षेप से सात प्रकार का है-श्रद्धावान, भक्तिमान्, तुष्टियुक्त, विधिज्ञ, अलोभी, क्षमावान और सत्त्वाधिक । आहार आदि द्रव्य जिसको देते हैं वह पात्र कहलाता है, उसके तीन भेद हैं- उत्तमपात्र, मध्यमपात्र और जघन्यपात्र । उनमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन गुणों से जो युक्त हैं वेमहर्षि
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy