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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती पर्यायवाचिनो ग्रहण मिहाभिप्रतम् । अतिसर्गस्त्यागः समर्पणमित्यनर्थान्तरम् । ततोऽनुग्रहार्थं यः स्वस्यातिसर्गस्तद्दानमितीष्यते । तद्विपरीतलक्षणस्य दानत्वानुपपत्तेरन्यथातिप्रसङ्गात् । अत्राहयदुक्त भवता दानं तत्किमविशिष्टं फलमाहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ ३९ ॥ विधिनविधानक्रम उच्यते । स च संक्षेपेण नवविधः-प्रतिग्रहोच्चदेशस्थापनपादप्रक्षालनार्चनप्रणमनमनोवाक्कायशुद्धित्रयाशनशुद्धिभेदात् । द्रव्यं पात्राय दीयमानं योग्यमाहारौषधशास्त्रप्रतिश्रयभेदाच्चतुर्विधम् । दाता दायकः पुरुषः । स च समासतः सप्तविध उच्यते-श्रद्धाता भक्तिमांस्तुष्टिमान्विज्ञान्यलुब्धः क्षमावान् सत्त्वाधिकश्चेति । आहारादिद्रव्यं यस्मै दीयते तत्पात्रम् । तच्चोत्तममध्यमजघन्यभेदात्त्रिविधम् । तत्रोत्तमपात्रं सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्रगुणत्रययुक्तो महर्षिरुच्यते । मध्यमपात्रं
त्याग को कहते हैं, त्याग, समर्पण ये इसके पर्यायवाची शब्द हैं । अनुग्रह के लिये अपने धनका त्याग करना दान है ऐसा अर्थ है। इससे विपरीत भाव या क्रिया होवे तो वह दान नहीं कहलाता, अर्थात् अपना परका जिसमें उपकार न हो वह दान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । दानका यही लक्षण है अन्यथा लक्षण करने में अति प्रसंग होगा।
प्रश्न- यह जो आपने दान का स्वरूप कहा है, इसका फल क्या समानरूप से होता है या कुछ विशेषता होती है ?
उत्तर-अब इसीको सूत्र द्वारा बतलाते हैं
सूत्रार्थ-विधि विशेष, द्रव्य विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेष से दान में विशेषता आती है।
दानके विधान के क्रमको 'विधि' कहते हैं। वह विधि संक्षेप से नौ प्रकार की है-प्रतिग्रह (पड़गाहन) उच्चदेश स्थापन अर्थात् उच्चस्थान पर-पाटे आदि पर बैठाना, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि और भोजन शुद्धि । पात्र के लिये (साधुजनों के लिये) जो वस्तु दी जाती है वह द्रव्य या पदार्थ आहार, औषध, शास्त्र और प्रतिश्रयरूप चार प्रकार का है । यह द्रव्य है। दायक या दाता दान देने वाले पुरुष को कहते हैं । दाता संक्षेप से सात प्रकार का है-श्रद्धावान, भक्तिमान्, तुष्टियुक्त, विधिज्ञ, अलोभी, क्षमावान और सत्त्वाधिक । आहार आदि द्रव्य जिसको देते हैं वह पात्र कहलाता है, उसके तीन भेद हैं- उत्तमपात्र, मध्यमपात्र और जघन्यपात्र । उनमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन गुणों से जो युक्त हैं वेमहर्षि