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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४४१ स्यादित्यादरो जीविताशंसा प्रत्येतव्या। रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनसंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानं मरणाशंसेति व्यपदिश्यते । मित्रेसु सुहृत्सु अनुरागः सम्भ्रमो मित्रानुरागः । स च पूर्वसुकृतसहपांसुक्रीडनाद्यनुस्मरणाद्भवति । एवं मया भुक्त शयितं सुक्रीडितमित्येवमादिप्रीतिविशेष प्रति चिन्ताप्रबन्धः सुखानुबन्ध इत्यभिधीयते । भोगाकांक्षायां नियतं चित्त दीयते तस्मिस्तेनेति वा निदानमित्याख्यायते । जीवितमरणाशंसा च मित्रानुरागश्च सुखानुबन्धश्च निदानं चेति विग्रहेण द्वन्द्ववृत्तिः । त एते पञ्च सल्लेखनाया: क्रमव्यतिक्रमाः प्रत्येतव्याः । एवं सम्यग्दर्शनाऽणुव्रतशीलसल्लेखनानां यथोक्तशुद्धिप्रतिबन्धिनः सप्तति रतिचाराः प्रयत्नतः परिहर्तव्याः । शक्तितस्त्यागो दानमित्युक्तमतस्तत्स्वरूपमाह __ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८ ॥ स्वस्य परस्य चोपकारोऽनुग्रह इत्युच्यते । स्वोपकारः पुण्यसञ्चयरूपः । परोपकारः सम्यगज्ञानादिवृद्धिलक्षणः। अनुग्रहायानुग्रहार्थम् । प्रात्मात्मीयज्ञातिधनपर्यायवाचित्वेऽपि स्वशब्दस्य धन शरीर का अवस्थान (कुछ काल तक) किस प्रकार हो जाय इस तरह शरीर के प्रति कुछ आदर सा हो जाना जीविताशंसा कही जाती है। रोग या उपद्रव से आकुल होकर जीने में संक्लेश उत्पन्न होने से मरण के प्रति चित्त लग जाना कि मरण आ जाय तो भला इत्यादि स्वरूप मरणाशंसा कहलाती है। मित्रों में अनुराग आना मित्रानुराग है, मित्रों के साथ पहले बचपन में धूल आदि में क्रीड़ा की थी इत्यादि रूप स्मरण आ जाना मित्रानुराग नामका अतिचार है । मैंने इस तरह पहले भोगा था, शयन किया था, ऐसा खेला था इसप्रकार की प्रीति विशेष में मनका लग जाना सुखानुबन्ध है । भोगाकांक्षा में नियत रूप से चित्त का देना निदान है । जीविताशंसा आदि पदों में द्वन्द्व समास है। ये पांच सल्लेखना के अतिचार जानने चाहिए। इसप्रकार सम्यग्दर्शन, पांच अणुव्रत और सात शीलों के कुल मिलाकर सत्तर अतिचार होते हैं ये सर्व अतिचार मनकी शुद्धि को रोकने वाले हैं, इन अतिचारों का बड़े प्रयत्न से त्याग करना आवश्यक है । 'शक्तितस्त्यागो दानम्' ऐसा पहले कहा था। अब उस दान का स्वरूप कहते हैं सूत्रार्थ-- अनुग्रह के लिए धनका त्याग करना दान है, स्व और परका उपकार होना अनुग्रह है, अपना उपकार तो पुण्य सञ्चय होना रूप है, और परका उपकार सम्यग्दर्शन आदि की वृद्धि होना है। उस अनुग्रह के लिये । स्व शब्द के आत्मा, आत्मीय, ज्ञाति और धन इतने अर्थ हैं इनमें से यहां धन अर्थ को लिया है । अतिसर्ग
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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