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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती दानफलस्य विशेषोऽवसेयो यथा क्षित्यादिकारणविशेषसन्निपाते सति नानाविधबीजफलविशेष इति । अत्र कश्चिदाह-उक्त भवता मध्यमपात्रमेकादशगुणस्थानवर्ती श्रावक इति । तत्र न ज्ञायन्ते कानि तान्येकादशगुणस्थानानि यद्भदाच्छावकभेद इत्यतस्तद्भ दक्रम उच्यते-दर्शनित्वं व्रतित्वं सामायिकत्वं प्रोषधित्वं सचित्तविरतत्त्वं रात्रिभक्तत्वं ब्रह्मचारित्वमारम्भविरतत्वं परिग्रहविरतत्वमनुमतिविरतत्वमुद्दिष्टविरतत्वं चेतान्येकादशगुणस्थानानि भवन्त्येतेषु वर्तमानाः श्रावकाश्चैकादशप्रकारा जायन्ते । तथा चोक्तम्
दसणवदसामायियपोसहसच्चित्तराइभत्ते य ।
बझारम्भपरिग्गह अणुमणमुद्दिट्ट देसविरदेदे ।। इति ।। तत्र सम्यग्दर्शनयुक्तो द्यूतादिव्यसनसप्तकोदुम्बरादिफलपञ्चकविरतश्च दर्शनश्रावकः प्रथमः स्यात् । तत्र द्यूतं मांसं सुरा वेश्या पापद्धिश्चौर्य परदारसेवा चेत्येतानि सप्तव्यसनानि पापात्मके पुसि सदा भवन्ति । उदुम्बरीकाकोदुम्बरीन्यग्रोधाश्वत्थप्लक्षाणां फलपञ्चकं च स्थूलबहुजीवयोनिस्थानं
दाता क्षमादि युक्त होने से, निर्दोष प्रासुक द्रव्य आहार होने से एवं पात्र-साधुजनों में सम्यग्दर्शन आदि की विशेषता होने से महान फल प्राप्त होता है-पुण्य सञ्चय अभ्युदयादि की प्राप्ति होती है ।
शंका-आपने अभी कहा था कि श्रावक के ग्यारह स्थान होते हैं, उसमें यह ज्ञात नहीं हुआ है कि वे ग्यारह स्थान कौन से हैं जिनके भेद से श्रावक के भेद होते हैं ?
समाधान- उनके भेदों का क्रम बताते हैं-दर्शनित्व, व्रतित्व, सामायिकत्व, प्रोषधित्व, सचित्त विरतित्व, रात्रिभक्तत्यागत्व, ब्रह्मचारित्व, आरम्भविरतत्व, परिग्रहविरतत्व, अनुमतिविरतत्व और उद्दिष्ट विरतत्व । ये गुणोंको बढ़ाने वाले ग्यारह स्थान हैं । इनमें प्रवृत्तमान श्रावक भी ग्यारह भेद वाले हो जाते हैं। कहा भी है
देशविरत के ये ग्यारह भेद हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभक्तविरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत । उनमें सम्यग्दर्शन युक्त द्यूत आदि सात व्यसन और उदंबर आदि पांच फलों से विरक्त श्रावक पहली दर्शन प्रतिमा वाला होता है । द्यूत, मांस, शराब, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री सेवा ये सात व्यसन पापी पुरुष में होते हैं। उदम्बरी, काकोदुम्बरी, बड़, अश्वत्थ और पीपल के फल बहुत बहुत जीवों के योनिस्थान हैं उनका दर्शनधारी