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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
जन्तवः सन्ति न सन्ति वेति प्रत्यवेक्ष्यते चक्षुषाऽवलोक्यते स्मेति प्रत्यवेक्षितम् । न प्रत्यवेक्षितप्रत्यवेक्षितम् । मृदुनोपकरणेन प्रमाज्यंते प्रतिलिप्यते स्मेति प्रमार्जितम् । न प्रमार्जितमप्रमार्जितम् । मूत्रपुरीषादेरुत्सर्जनं निक्षेपणमुत्सर्गः । पूजोपकररणादेर्ग्रहणमादानम् । प्रावरणादिः संस्तरस्तस्योपक्रमणं प्रारम्भः संस्तरोपक्रमरणम् । क्षुदर्म्यादितत्वात्स्वावश्यकेष्वनुत्साहोऽनादर इत्युच्यते । स्मृत्यनुपस्थानं व्याख्यातम् । उत्सर्गश्चादानं च संस्तरोपक्रमणं चोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि । श्रप्रत्यवेक्षितं चाप्रमार्जितं चाप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जिते स्थाने । तयोरुत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमरणान्यप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि । तानि चानादरश्च स्मृत्यनुपस्थानं चेति । पुनर्विग्रहे द्वन्द्ववृत्तिः त एते पञ्च प्रोषधोपवासशीलस्यातिचारा भवन्ति । तृतीय शिक्षाव्रतस्यातिचारानाहसचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुः पक्वाहाराः || ३५॥
चित्तं ज्ञानम् । तेन सह वर्तत इति सचित्तः । चेतनावद्द्रव्यमित्यर्थः । तेनैव प्रस्तुतेन चित्तवता सम्बध्यते उपश्लिष्यते यस्स सम्बन्ध इत्याख्यायते । तेनैव सचित्तद्रव्येणाविभागवता सम्मिश्रयते
जीव है अथवा नहीं है इस प्रकार नेत्र द्वारा जिसको देखा है वह प्रत्यवेक्षित है। जो ऐसा नहीं है वह अप्रत्यवेक्षित कहलाता है । मृदु उपकरण द्वारा जो मार्जित शोधित हो चुका है वह प्रमार्जित है, जो ऐसा नहीं है वह अप्रमार्जित है । मूत्र पुरीष आदि का विसर्जन उत्सर्ग कहलाता है । पूजा के उपकरण आदि का ग्रहण आदान है । प्रावरणचटाई या चादर आदि संस्तर कहलाता है । संस्तर का प्रारम्भ संस्तरोपक्रमण है । भूख से पीड़ित होने से अपनी आवश्यक क्रियाओं में उत्साह नहीं होना अनादर है । स्मृति अनुपस्थान का अर्थ कह चुके हैं उत्सर्ग आदि पदों में द्वन्द्व समास है पुनः अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित का द्वन्द्व करके उनका उत्सर्ग आदि के साथ तत्पुरुष समास हुआ है और अनादर तथा स्मृति अनुपस्थान पदों को द्वन्द्व करके पूर्वके साथ जोड़ा है । ये पांच प्रोषधोपवास शील के अतिचार होते हैं ।
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तीसरे शिक्षा वृतके अतिचारों को कहते हैं—
सूत्रार्थ - सचित्ताहार, सचित्त सम्बन्ध आहार, सचित्त सम्मिश्र आहार, अभिषव आहार और दुःपक्व आहार ये पांच उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं । ज्ञानको चित्त कहते हैं उसके साथ जो रहता है वह सचित्त है अर्थात् चेतन युक्त द्रव्य सचित्त कहलाता है । उस सचित्त से सम्बन्ध उपश्लेष होना सचित्त सम्बन्ध है । उसी सचित्त द्रव्य के साथ विभाग रहित मिल जाना सचित्त सम्मिश्र है, सचित्त