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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४३७ चेति । तत्र शरीरावयवानामनिभृतमवस्थानं कायगतम् । वर्णसंस्काराभावार्थागमकत्वं चापलादि वाग्गतम् । मनसोऽनपितत्वं मानसं चान्यथाप्रणिधानम् । योगानां दुष्प्रणिधानानि योगदुष्प्रणिधानानि । इति कर्तव्यं प्रत्यसाकल्याद्यथाकथंचित्प्रवृत्तिरनुत्साहोऽनादर इति कथ्यते । अनैकाग्रघमसमाहितमनस्कता स्मृत्यनुपस्थानमित्याख्यायते । स्यान्मतं ते - मनोदुष्प्रणिधानरूपत्वात्स्मृत्यनुपस्थानस्य पृथगुपादानमनर्थमिति । तन्न । किं कारणम् ? तत्राऽन्याऽचिन्तनात् । मनोदुष्प्रणिधाने ह्यन्यत्किचिदचिन्तयतश्चिन्तयत एव वा विषये क्रोधाद्यावेश प्रौदासीन्येन वावस्थानं मनसोऽस्ति । इह पुनः परिस्पन्दना - च्चिन्ताया ऐकाग्रयणानवस्थानमिति महाननयोर्भेद: । योगदुष्प्रणिधानानि चानादरश्च स्मृत्यनुपस्थानं च योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । त एते पञ्च सामायिकशीलस्यातिक्रमा बोद्धव्याः । प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतस्यातिचारानाह प्रत्यवेक्षिताऽप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ||३४|| शरीर के अवयवों को संवृत नहीं रखना कायदुष्प्रणिधान है । वर्ण का उच्चारण ठीक नहीं करना, अर्थ बिना समझे पढ़ना, चपलता से उच्चारणादि वचन दुष्प्रणिधान है । मनको स्थिर नहीं रखना इत्यादि मनः दुष्प्रणिधान है । योग दुष्प्रणिधान पद में तत्पुरुष समास करना । सामायिक सम्बन्धी कर्त्तव्य में पूर्णता नहीं करना जैसी चाहे वैसी प्रवृत्ति करना इत्यादिरूप अनुत्साह को अनादर कहते हैं । मनकी एकाग्रता नहीं होना स्मृतिअनुपस्थान है । शंका - स्मृति अनुपस्थान तो मनः दुष्प्रणिधान स्वरूप ही है अतः इसका पृथक्रूप से ग्रहण व्यर्थ है ? समाधान - ऐसा नहीं है, उसमें अन्य का अचिंतन है, अन्य जो कुछ भी चिंतन करते हुए अथवा नहीं करते हुए विषय में क्रोधादि का आवेश आना या उदासीन रहना मनोदुष्प्रणिधान कहलाता है और विचार बार-बार बदलने से एकाग्रता नहीं होना स्मृति अनुपस्थान है इस तरह इन दोनों में महान भेद है | योग दुष्प्रणिधान आदि तीन पदों में द्वन्द्व समास है । ये पांच सामायिक शीलके अतिचार समझने चाहिये । प्रोषधोपवास शिक्षावृत के अतिचारों को बतलाते हैं सूत्रार्थ - बिना देखे, बिना शोधे स्थान पर उत्सर्ग करना, बिना देखे बिना शोधे स्थान से किसी वस्तु का ग्रहण करना, बिना देखे बिना शोधे स्थान पर संस्तर आदि का बिछाना, अनादर और स्मृति अनुपस्थान ये पांच प्रोषधोपवास शिक्षावृत के अतिचार हैं ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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