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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४३९ व्यतिकीर्यत इति सम्मिश्रः। अत एव सचित्तसम्बन्धे संसर्गमात्रं विवक्षितम् । सम्मिश्रे तु सूक्ष्मजन्तुव्याकुलीकरणमित्यनयोर्महान्भेदोऽवसेयः । सचित्तादिषु प्रवृत्तिः कथं स्यादितिचेत्प्रमादसम्मोहाभ्यामिति ब्रूमः । सौवीरादिको द्रवो वृष्यो वा द्रव्यविशेषोऽभिषव इत्यभिधीयते । सान्तस्तण्डुलभावेनातिविक्लेदनेन वा दुष्टपक्वो दुःपक्वोऽसम्यक्पक्व इत्यर्थः । अनयोश्चाभ्यवहारे को दोष इति चेदुच्यते--इंद्रियमदवृद्धिसचित्तप्रयोगवातादिप्रकोपासयमादिस्तदभ्यवहारे दोषः स्यात् । आह्रियतेऽभ्यवह्रियत इत्याहारोऽशनादिः । स च सचित्तादिसम्बन्धभेदात्पञ्चधा। सचित्तश्च सम्बन्धश्च सम्मिश्रश्चाभिषवश्च दुःपक्वश्च सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुःपक्वाः । ते च ते आहाराश्चेति पुनः कर्मधारयः। त एते पञ्चोपभोगपरिभोगसङ्घयानशीलस्यातिचारा बोद्धव्याः । अतिथिसंविभागशिक्षाव्रतातिचार प्रदर्शनार्थमाह सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ॥३६॥ सम्बन्ध में संसर्ग मात्र विवक्षित होता है और सचित्त सम्मिश्र में सूक्ष्म जन्तु बिलकुल व्याप्त रहते हैं यही इनमें महान् भेद है । शंका-व्रतीकी सचित्त आदि वस्तुओं में प्रवृत्ति किस प्रकार सम्भव है ? समाधान-प्रमाद और मोह के कारण व्रती सचित्तादि में प्रवृत्ति करता है। सौवीर आदि द्रव अथवा वृष्य (गरिष्ठ) को अभिषव कहते हैं। चावल पकने में जो अंदर से कच्चे रहते हैं या अधिक पक जाते हैं उसको दुष्ट पक्व-दुःपक्व कहते हैं। प्रश्न-इन दोनों प्रकार की वस्तुओं के खाने में क्या दोष है ? उत्तर-इंद्रियों में मद की वृद्धि होती है तथा सचित्त के खाने से वातादि का प्रकोप होता है, उससे असंयम होता है । इस प्रकार अभिषव और दुःपक्व पदार्थों के खाने से दोष उत्पन्न होते हैं । जो ग्रहण किया जाता है वह अशन आदि आहार है । उस आहार के सचित्त आदि के सम्बन्ध से पांच भेद होते हैं। सचित्त आदि पदों में द्वन्द्व करके पुनः आहार शब्द कर्मधारय समास करके जोड़ना। ये पांच उपभोग परिभोग प्रमाण नामके शील के अतिचार होते है । अतिथि संविभाग शिक्षा वत के अतिचार बताते हैं सूत्रार्थ-सचित्त पर रखना, सचित्त से ढ़कना, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पांच अतिथि संविभाग व्रतके अतिचार होते हैं ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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