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सप्तमोऽध्यायः
[ ४३१ सदृशानि कृत्रिममणिमुक्तादिद्रव्याणि प्रतिरूपकाणीत्युच्यन्ते । तैर्वञ्चनापूर्वकं व्यवहरणं प्रतिरूपकव्यवहारः । एतेषु च पापपरपीडाराजभयादयो दोषा लोके प्रतीताः । त इमे पञ्चाऽदत्तादानाऽणुव्रतस्याऽतिचारा बोद्धव्याः । संप्रति स्वदारसन्तोषाणुव्रतस्यातिचारानाहपरविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडा
कामतीवाभिनिवेशाः ॥ २८ ॥ सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चाविर्भावाद्विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्युच्यते । परस्य विवाहः परविवाहस्तस्य करणं परविवाहकरणम् । चारित्रमोहस्त्रीवेदाधुदयप्रकर्षात्परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी । ततः कुत्सिता इत्वरी इत्वरिका । अत्र कुत्सायां कः । या एकपुरुषभर्तृ का सा परिगृहीता स्वीकृतेत्युच्यते । या पुनर्गणिकात्वेन पुश्चलीत्वेन वा परपुरुषगमनशीला स्वामिविरहिता साऽपरिगृहीतेति कथ्यते । परिगृहीता चापरिगृहीता च परिगृहीतापरिगृहीते । इत्वरिके च ते परिगृहीतापरिगृहीते च इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीते। तयोर्गमनमित्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनमिति निरुच्यते ।
हीनाधिक मानोन्मान नामका अतिचार है । सदृश-समान कृत्रिम मणि मोती आदि द्रव्यों को प्रतिरूपक कहते हैं। उनके द्वारा ठगने के अभिप्राय से व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार अतिचार है । अर्थात् नकली पदार्थों को असली कहकर बेचना आदि। इन पांचों क्रियाओं में दूसरे जीवों को पीड़ा होती है, अपने को पाप लगता है राजा का भय भी होता है इत्यादि दोष प्रत्यक्ष ही लोक में प्रतीत होते हैं। ये पांच अचौर्याणवत के अतिचार जानने चाहिये।
अब स्वदार सन्तोष अणुव्रत के अतिचारों को कहते हैं
सूत्रार्थ-परका विवाह करना, परिगृहीत इत्वरिकागमन, अपरिगृहीत इत्वरिकागमन, अनंगक्रीडा और कामतीवाभिनिवेश ये पांच स्वदार सन्तोष व्रतके अतिचार हैं।
साता वेदनीय और चारित्र मोह के उदय होने पर कन्या का वरण करना विवाह है । परके विवाह को परविवाहकरण कहते हैं । चारित्रमोह के भेद स्वरूप स्त्री वेद के तीव्र उदय से परपुरुष के पास जो जाती है उस स्त्रीको इत्वरी कहते हैं, कुत्सित इत्वरी इत्वरिका है, इसमें कुत्सा (खराब) अर्थ में क प्रत्यय आया है । जो एक पुरुष पति वाली है स्वीकृत है वह परिगृहीता है और जो वेश्या या व्यभिचारिणीरूप से परपुरुष के पास जाती है स्वामी रहित है वह स्त्री अपरिगृहीता कहलाती है। परिगृहीता अपरिगृहीता में द्वन्द्व करके पुनः इत्वरिका पद के साथ कर्मधारय समास करना । तथा