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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती - स्तेनश्चोरः । प्रयोजनं प्रयोगः । प्रयुज्यते येन यस्मिन्यस्माद्वा प्रयोगः । स्तेनस्य प्रयोगः स्तेनप्रयोगः । अस्य तात्पर्यार्थः कथ्यते-मुष्णन्तं पुरुषं स्वयमेव वा प्रयुङ तेऽन्येन वा प्रयोजयति प्रयुक्तमनुमन्यते वा यत् स स्तेनप्रयोग इति । तेन चोरेणाहृतमानीतं यद्रव्यं चेतनमचेतनं वा तत्तदाहृतम् । तदाहतस्यादानं ग्रहणं तदाहतादानम् । अस्यायमर्थ:-अप्रयूक्तनाऽननुमतेन च चोरेणानीतस्य वस्तनो ग्रहणं तदाहृतादानं भवतीति । विरुद्धं परचक्राक्रान्तमित्यर्थः । राज्ञो भावः कर्म वा राज्यम् । विरुद्धं च तद्राज्यं च विरुद्धराज्यम् । उचितन्यायादन्येन प्रकारेण द्रव्यस्यादानं ग्रहणमतिक्रमणमतिक्रमो विलंघनमित्यर्थः । विरुद्ध राज्यस्यातिक्रमो विरुद्धराज्यातिक्रमः । विरुद्धराज्ये ह्यल्पमूल्यलभ्यानि महा_णि द्रव्याणीत्यतिलोभाभिभूतस्यातिक्रमणबुद्धिर्जायते। प्रस्थादिकं मानं, तुलादिकमुन्मानम् । मानं चोन्मानं च मानोन्माने । हीनं चाधिकं च हीनाधिके । हीनाधिके मानोन्माने यत्र कर्मणि तद्धीनाधिकमानोन्मानम् । न्यूनेनान्यस्मै देयमभ्यधिकेन स्वयं ग्राह्यमित्येवमादिकूटप्रस्थादिप्रयोग इत्यर्थः । अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं । स्तेन चोर को कहते हैं। जिसके द्वारा अथवा जिसमें स्तेन का प्रयोग होता है वह स्तेन प्रयोग है, इसका तात्यर्य यह है कि चोरी करने वाले पुरुष को चोरी में लगाना, अथवा दूसरे को कहकर चौर्य क्रम में नियुक्त करवाना, अथवा कोई चोरी कर रहा है उसकी अनुमोदना करना यह सर्व क्रिया स्तेन प्रयोग कहलाती है । उस चोर के द्वारा चुराकर लाया गया जो चेतन अचेतन द्रव्य है उसको ग्रहण करना नदाहृता दान है । इसका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार है-चोर को चोरी करने में प्रयुक्त नहीं किया उसको अनुमोदन भी नहीं दिया है किन्तु चोर के द्वारा लायी गयी वस्तु को ग्रहण करना तदाहृतादान अतिचार है । पर चक्र से आक्रान्त को विरुद्ध कहते हैं, राजा के भाव या कर्मको राज्य कहते हैं। विरुद्ध राज्य पद में कर्मधारय समास है। उचित न्याय को छोड़कर अन्य प्रकार से द्रव्यको ग्रहण करना विरुद्ध राज्यातिक्रम है। (अतिक्रम का अर्थ उल्लंघन करना है) विरुद्ध राज्यातिक्रम अर्थात् विरुद्ध राज्य में (दूसरे राजा के राज्य में) महा कीमती द्रव्य थोड़ी कीमत में मिल जाते हैं उन द्रव्यों को अति लोभ के कारण राज्य कानून का भंग कर लाने की बुद्धि होती है, उन द्रव्यों को जो क्रम भंग करके लाते हैं वह विरुद्ध राज्यातिक्रम कहलाता है। (छिपाकर एक देश से दूसरे देश में वस्तुओं का निर्यात करना इत्यादि) प्रस्थ (सेर या किलो) आदि को मान कहते हैं और तुला आदि को उन्मान कहते हैं । मान और उन्मान पदों में तथा हीनाधिक पदों में द्वन्द्व समास है। हीन अधिक है मान उन्मान जिस क्रिया में उसे हीनाधिक मानोन्मान कहते हैं । भाव यह है कि कम माप तौल से तो दूसरे को देना और अधिक माप तोल से स्वयं लेना इत्यादि खोटे प्रस्थादिका प्रयोग करना