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सप्तमोऽध्यायः
[ ४२७. रक्षणं शोलमित्यस्यार्थस्य द्योतनाथं शीलग्रहणं कृतम् । तेन दिग्विरत्यादीनि शीलानीति प्रागुक्तमुपपन्नं भवति । यद्यपीदं सूत्रमविशेषेणोक्तं, तथापि वक्ष्यमाणबन्धनवधच्छेदादिवचनसामर्थ्यादत्र गृहिव्रतशीलसंप्रत्ययो भवति । तहि बन्धबधच्छेदादयो गृहस्थस्यैव सम्भवन्ति, नाऽनगारस्येति । पञ्चपञ्चेत्येतद्वीप्सायां द्वित्ववचनम् । यो यः क्रमो यथाक्रम-क्रमस्यानतिवृत्त्येत्यर्थः । अतिचारग्रहणमनुवर्तते । ततो वक्ष्यमाणा अतिचाराः । पञ्चस्वेष्वणुव्रतेषु सप्तसु शीलेषु सूत्रोक्तक्रमानतिक्रमेण पञ्चपञ्चभवन्तीति सिद्धम् । अत्राह-यद्यवं तस्मादुच्यतां तावदाद्यस्याहिंसाणुव्रतस्य केऽतिचारा येभ्योऽयं निवृत्तो निरपवादो भवतीत्यत्रोच्यते
बन्धवधच्छेदातिभारारोपणाऽनपाननिरोधाः ॥२५॥
समाधान-ऐसा नहीं है। व्रतके रक्षण करने वाले को शील कहते हैं। इस तरह का अर्थ स्पष्ट करने हेतु शील शब्दका ग्रहण किया है। इसीसे दिग्विरति आदि शील हैं ऐसा पहले का कथन व्यवस्थित हो जाता है । यद्यपि यह सूत्र सामान्य से कहा गया है कि व्रत शीलों के पांच-पांच अतिचार होते हैं, इसमें यह विशेष नहीं बताया कि किस व्रती के ये अतिचार हैं, किन्तु अगले सूत्र में बन्धन वध छेद इत्यादि शब्द द्वारा अतिचार कहेंगे, उन शब्दों की सामर्थ्य से ही यहां पर ये अतिचार गृहस्थ' के व्रत शीलों के हैं ऐसा बोध हो जाता है। क्योंकि ये बन्धन वध छेद इत्यादि रूप क्रियायें गहस्थ के ही सम्भव हैं अनगार के नहीं। वीप्सा अर्थ में पञ्च पञ्च ऐसा दो बार शब्द प्रयोग हुआ है। जिसका जो क्रम है उसका उल्लंघन न करने को यथा क्रम कहते हैं । अतिचार शब्दका अनुवर्तन चल रहा है, उससे आगे कहे जाने वाले अतिचार हैं ऐसा बोध होता है। पांच अणुव्रत और सात शीलों में सूत्रोक्त क्रम से पांच-पांच अतिचार होते हैं ऐसा सिद्ध होता है ।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो पहले अहिंसा अणुव्रत के कौन-कौन से अतिचार हैं जिन अतिचारों से निवृत्त हुआ यह गृहस्थ निर्दोष कहलाता है ?
उत्तर-अब इसोको सूत्र द्वारा बताते हैं
सत्रार्थ- बन्ध, वध, छेद, अतिभार का आरोपण और अन्नपान का निरोध ये पांच अतिचार अहिंसाणुव्रत के हैं।