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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो गुणसम्भावना प्रशंसा । वाचा तत्प्रकाशनं संस्तव इत्ययमनयोर्भेदः । तत्त्वार्थाऽश्रद्धानलक्षणाद्दर्शनमोहोदयादतिचरणमतिचारोऽतिक्रमोऽपवाद इति चोच्यते । त एते शङ्कादयः पञ्च तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणस्य सम्यग्दर्शनस्य तद्वतो वाऽतिचारा वेदितव्याः । स्यान्मतं-सम्यग्दर्शनमष्टाङ्ग निःशङ्कितत्वादिलक्षणमुक्तम् । तस्याऽतिचारैरपि तावद्भिरेव भवितव्यमित्यष्टावतिचारा निर्देष्टव्या इति । तत्रैवान्तर्भावाद्व्रतशीलानां पञ्चपञ्चाऽतिचारान्विवक्षुणाऽऽचार्येण प्रशंसासंस्तवयोरितरानन्तर्भाव्य सम्यग्दृष्टेरपि पञ्चैवातिचारा उक्ता इति न प्रोक्तदोषः । इदानीं गृहिव्रतशीलातिक्रमसङ्ख्यानिर्देशार्थमाह
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥२४॥ व्रतानि च शीलानि च व्रतशीलानि व्याख्यातलक्षणानि तेषु व्रतशीलेषु । नन्वभिसन्धिपूर्वको नियमो व्रतमिति कृत्वा दिग्विरत्यादीनां व्रतग्रहणेन लब्धत्वाच्छीलग्रहणमनर्थकमिति चेत्तन्न-व्रतपरि
उत्तर-वचन और मनः संबंधी भेद है, देखिये ! मनके द्वारा मिथ्यादृष्टि के ज्ञान, चारित्र की सम्भावना करना प्रशंसा है और वचन के द्वारा मिथ्यादृष्टि के गुणों को प्रगट करना संस्तव है, यहो दोनों में भेद है । तत्त्वार्थ के अश्रद्धानरूप दर्शन मोहके उदय से अतिचरण होना अतिचार अतिक्रम या अपवाद कहलाता है। ये शंका आदि पांच अतिचार तत्त्वार्थ श्रद्धान स्वरूप सम्यक्त्व के या सम्यक्त्वधारी जीवके होते हैं ऐसा समझना चाहिए।
शंका-सम्यग्दर्शन निःशंकितत्व आदि आठ अंग वाला होता है ऐसा कहा गया है, उस सम्यक्त्व के अतिचार भी उतने होने चाहिए इसलिये आठ अतिचारों का प्रतिपादन करना चाहिए ?
समाधान-आठ अतिचारों को उन्हीं पांच में गर्भित किया गया है, क्योंकि व्रत और शीलों के पांच-पांच अतिचारों को कहने की विवक्षा रखने वाले आचार्य ने प्रशंसा और संस्तव में इतर अतिचारों को गर्भित कर सम्यग्दृष्टि के भी पांच ही अतिचार बतलाये हैं अतः उक्त दोष नहीं आता है।
अब गृहस्थों के व्रत और शीलों के अतिचारों की संख्या बताते हैंसत्रार्थ-व्रत और शीलों के क्रमशः पांच-पांच अतिचार होते हैं। व्रत और शील पदों में द्वन्द्व समास है । व्रतादिका व्याख्यान कर दिया है।
शंका-अभिप्राय पूर्वक नियम लेना व्रत है ऐसा व्रत का लक्षण है, दिग्विरति इत्यादि व्रत ही हैं । व्रत शब्द के ग्रहण से सबका ग्रहण हो जाता है अतः शील शब्दका ग्रहण सूत्र में व्यर्थ ही किया गया है ?