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सप्तमोऽध्यायः
[ ४२५ न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ? स्यान्मतं ते-पूर्वसूत्रेण सहक एव योगः कर्तव्यो लघ्वर्थ इति । सत्यमेतत्, किं तु सप्ततयशीलवतः कदाचित्कस्य चिदेव गृहिणः सल्लेखनाभिमुख्यं भवति, न सर्वस्येति ज्ञापनार्थ पृथग्योगकरणम् । अथवा नायं सल्लेखनाविधिः श्रावकस्यैव दिग्विरत्यादिशीलवतः, किं तर्हि संयतस्यापीत्यविशेषज्ञापनार्थ पृथगुपदेशः कृतः । अत्राह-वतिना सम्यग्दृष्टिना भवितव्यमित्युक्तम् । तस्य च सम्यग्दर्शनस्योभयं प्रति साधारणा: केऽतिचारा इत्याह
शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥२३॥
निःशङ्कितत्वादयो व्याख्याता दर्शनविशुद्धिरित्यत्र । तत्प्रतिपक्षे शङ्कादयो वेदितव्याः। प्रशंसासंस्तवयोः कुतो विशेष इति चेद्वाङमानसविषयभेदादिति ब्रूमः । मिथ्यादृष्टेमनसा ज्ञानचारित्र
परिहार नहीं हुआ तो व्रतादि गुणोंका नाश तो होने ही नहीं देता, इस प्रकार की विधि को आत्म वध कैसे कह सकते हैं ? नहीं कह सकते ।
प्रश्न-सल्लेखना भी यदि श्रावक का व्रत है तो उसको पूर्व सूत्र के साथ जोड़ कर एक सूत्र बनाना चाहिये था ?
उत्तर-ठीक कहा ! किन्तु सात शीलोंका पालन करने वाले गृहस्थों में किसी किसी के कदाचित् सल्लेखना करने के भाव होते हैं सब गृहस्थों के ऐसे भाव नहीं हो पाते, इस बातको स्पष्ट करने हेतु पृथक् सूत्र रचा है । अथवा यह सल्लेखना विधि केवल दिग्वतादि के पालने वाले श्रावक के ही नहीं होती अपितु संयमी साधुजनों के भी होती है, इस अर्थको बतलाने के लिये पृथक् सूत्र रचा है।
प्रश्न-व्रती पुरुष सम्यग्दृष्टि होना चाहिए ऐसा आपने पहले कहा था। उस सम्यग्दर्शन के दोनों अनगार और अगारी व्रतियों के समान रूप से जो अतीचार या दोष होते हैं वे कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-अब इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव ये पांच अतिचार सम्यग्दर्शन के होते हैं ।
दर्शनविशुद्धि भावना के कथन में निःशंकितत्वादि गुणों को कह दिया है। उन गुणों के प्रतिपक्षभूत शंका आदि अतिचार हैं।
प्रश्न-प्रशंसा और संस्तव में क्या विशेषता है ?