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________________ ४२४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्राप्नोतीति चेतन-अप्रमत्तत्वात् । प्रमत्तयोगाद्धि प्राणव्यपरोपणं हिंसेत्युक्त; न चावश्यम्भाविनि मरणेऽस्य सल्लेखनां कुर्वतो रागद्वेषमोहयोगोऽस्ति येनात्मवधदोषः सम्भाव्यते। रागाद्याविष्टस्य तु विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं घ्नतः स्वघातो भवत्येव । उक्त च रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिदं समये । तेहिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेजि रिणद्दिट्टा ।। इति ।। किं च-मरणस्य स्वयमनिष्टत्वात् । यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टस्तद्विनाशकारणे चोपस्थिते यथाशक्ति परिहरति, दुष्परिहरे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति, दुष्परिहरे च यथा स्वगुणविनाशो . समाधान-ऐसा नहीं है, सल्लेखना अप्रमत्त-सावधानीपूर्वक की जाती है, प्रमाद के योग से जो प्राणों का घात किया जाता है वह हिंसा है ऐसा अभी कह आये हैं, अतः जहां प्रमाद योग नहीं है वह घात या वध नहीं कहलाता । मरण तो अवश्य होने वाला है उस वक्त सल्लेखना को करने वाले व्यक्ति के राग द्वेष मोह का योग तो होता नहीं जिससे कि आत्म वध का दोष लगे, अर्थात् राग द्वेषादि नहीं होने से सल्लेखना विधि में आत्म वध का दोष नहीं आता। जो व्यक्ति राग द्वेष से युक्त है और विष शस्त्र आदि उपकरण के प्रयोग से अपना घात करता है उसके अवश्य ही आत्मवध होता है । कहा भी है-शास्त्र में रागादि की उत्पत्ति नहीं होने को अहिंसा कहते हैं और उन्हीं रागादि की उत्पत्ति होना हिंसा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥१॥ दूसरी बात यह है कि मरण तो स्वयं अनिष्ट है, जैसे व्यापारी अनेक प्रकार के लेने देने के उपयोगी वस्तुओं के सञ्चय करने में तत्पर रहता है, उसका घट उक्त वस्तुओं से भरा होता है, उस घट का नाश व्यापारी को कभी भी दृष्ट नहीं है, यदि कदाचित् गृह नाश का प्रसंग उपस्थित होता है तब वह पुरुष उसका परिहार करता है, यदि नाश के कारणों का परिहार नहीं होता तब पण्य-क्रय विक्रय की वस्तुओं का या रुपयों का नाश जैसे न हो वैसा प्रयत्न करता है। ठीक इसी प्रकार गृहस्थ भी व्रत शीलरूप पण्य वस्तुओं के सञ्चय करने में तत्पर रहता है उन व्रतादि का आधार जो शरीर है उसका नाश नहीं चाहता, किन्तु जब व्रतादि का नाश होने का प्रसंग उपस्थित होता है तब स्वगुणों का नाश न हो इस तरीके से प्रयत्न करता है, नाश के कारण का
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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