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सप्तमोऽध्यायः
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प्राप्नोतीति । तन्न युक्तं- तस्य संयमघातिकर्मोदय सद्भावात् । संयमाभावे संयतत्वाघटनात् । तर्ह्यस्य महा व्रतत्वं नोपपद्यत इति चेतन्न - उपचारतस्तदुपपत्तेः । यद्यप्यभ्यन्तरसंयमघातिकर्मोदयापादितमन्दविरतपरिणामोऽस्ति, तथापि बाह्य ेषु हिंसादिषु सर्वेष्वनासक्तबुद्धिरिति कृत्वा श्रावको महाव्रतीत्युपचर्यते—यथा राजकुले सर्वगतश्चैत्र इति । एवं च सत्यभव्यस्यापि निर्ग्रन्थलिङ्गधारिण एकादशाङ्गाध्यायिनो महाव्रतपरिपालनादसंयतभावस्याप्युपरिग्रैवेयकविमानवासितोपपन्ना भवति । स्वशरीरसंस्कारकारणस्नानगन्धमाल्याभरणादिविरहितः । शुचाववकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणश्रावण चिन्तनाहितान्त: करणः सन्पर्वण्युपवसेन्निरारम्भः श्रावकः । भोगपरिमाणं
रहता है उतने काल तक सावद्यका पूर्णतया त्याग हो जाने से वह श्रावक महाव्रती • जैसा हो जाता है ।
शंका- फिर तो सामायिक में स्थित श्रावक के संयमीपना प्राप्त होगा ?
समाधान - ऐसा नहीं कहना । श्रावकके संयमघाती ( प्रत्याख्यानावरण कषायका) कर्मका उदय है । संयमके अभाव में संयमीपना बन नहीं सकता ।
प्रश्न- यदि ऐसी बात है तो उनके महाव्रतपना नहीं मानना चाहिए ।
उत्तर -- उनके महाव्रतपना उपचार से माना जाता है, यद्यपि अन्तरंग में संयमघाती कर्मके उदय से मन्दविरति परिणाम है तथापि बाहर में हिंसादि सर्व पापों में उस वक्त वह आसक्त नहीं है अनासक्त बुद्धिवाला है इस दृष्टि से श्रावक को महावृती उपचार से कहते हैं । जैसे राजकुल में चैत्र सर्वत्र जाता है ऐसा कहते हैं, इसमें यद्यपि चैत्रनामा पुरुष अन्तःपुर आदि स्थानों में से किसी जगह नहीं भी जाता किन्तु रुकावट नहीं होने से कह देते हैं कि यह राजकुल में सर्वत्र जाता है । वैसे ही संयमघाती कर्मोदय से पूर्ण संयम नहीं है किन्तु हिंसादि में उस वक्त विरत होने से महावृती है ऐसा कहा जाता है । जो अभव्य निर्ग्रन्थ लिंगधारी है ग्यारह अंगोंका पाठी है महावतों का पालन भी करता है किन्तु उसके संयमभाव नहीं है फिर भी सामायिक व्रत के प्रभाव से उपरिम ग्रैवेयक विमान में उत्पत्ति होना बनता है ।
पवित्र स्थान पर, साधुके निवास में चैत्यालय में अथवा अपने प्रोषधोपवास गृह में धर्म कथा को सुनना, सुनाना, चिन्तन इत्यादि में मन लगाते हुए आरंभ रहित हुआ श्रावक उपवास करता है, इस तरह प्रोषधोपवास को करने की विधि है । भोगों का