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________________ ४२२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ पञ्चविधं प्रत्येतव्यम् । त्रसघातप्रमादबहुवधाऽनिष्टाऽनुपसेव्यविषयभेदात् । तत्र मधुमांसं सदा परिहर्तव्यम् त्रसघातं प्रति निवृत्तचेतसा मद्यमुपसेव्यमानं कार्याकार्यविवेकसम्मोहकरमिति तद्वर्जनं प्रमादविरहायानुष्ठेयम् । केतक्यर्जुनपुष्पादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानानि । शृङ्गवेरमूलकाहरिद्रानिम्बकुसुमादीन्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि । एतेषामुपसेवने बहुघातोऽल्पफल मिति तत्परिहारः श्रेयान् । यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोन्यदनिष्टमित्यनिष्टतो निवर्तनं कर्तव्यमभिसन्धिनियमाभावे व्रतानुपपत्तोः । इष्टानामपि विचित्रवस्तुविकृतवेषाभरणादीनामनुपसेव्यादीनां परित्यागः कार्यों यावज्जीवितम् । अथ शक्ति स्ति तहि कालपरिच्छेदेन वस्तुपरिमाणेन च शक्तयनुरूपनिवर्तनं कार्यम् । अतिथिसविभागश्चतुर्धा भिद्यते । कुतः ? भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात् । मोक्षार्थमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धाय शुद्धचेतसा निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपबृहणानि दातव्यानि । औषधमपि परिमाण पांच प्रकार का जानना चाहिये, सघात, प्रमाद, बहुधात, अनिष्ट और अनुपसेव्य । इसीको बताते हैं-मधु और मांसका जीवन पर्यन्त के लिये त्याग करना त्रसघात वर्जन है। अर्थात् भोगों के परिमाण का पहला भेद वह है जिसमें सघात होता है ऐसे पदार्थ का त्याग करना होता है। कार्य अकार्य के विवेक को नष्ट करने वाला मद्य-शराब प्रमादकारी है उसका त्याग करना चाहिए। केतकी के पुष्प, अर्जुन के पुष्प इत्यादि पुष्प बहुत जीवों के स्थान हैं तथा शृगवेर मूलक-कन्द मूल, गीली हल्दी, निंब के पुष्प, अनन्तकायादि जो पदार्थ हैं उनका सेवन करने से बहुत जीवों का घात होता है और फल थोड़ा है अतः उसका त्याग श्रेयस्कर है । यान, वाहन, आभरण आदि पदार्थों में मेरा इतने से प्रयोजन है मुझे इतने इष्ट है अन्य अनिष्ट है इस प्रकार विचार कर अनिष्ट का त्याग करना चाहिए । अभिप्राय पूर्वक जब तक वस्तु का त्याग नहीं किया जाता तब तक वह व्रत नहीं कहलाता है। जो इष्ट प्रयोजनभूत पदार्थ हैं उनमें भी विचित्र वस्तु, विकृत विकार पैदा करने वाला वेष या अलंकार आदि हैं वे अनुपसेव्य हैं उन पदार्थोका त्याग जीवन पर्यन्त के लिए कर देना चाहिए। यदि ऐसी शक्ति नहीं है तो कालकी मर्यादा लेकर वस्तुओं का प्रमाण कर शक्ति के अनुसार त्याग करना चाहिए। अतिथि संविभाग व्रत चार प्रकार का है भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय । मोक्ष में उद्यत हुए संयम में परायण, रत्नत्रय से शुद्ध ऐसे अतिथि मुनिको निर्दोष भिक्षा-आहार देना चाहिए। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बढ़ाने वाले धर्म के
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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