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________________ ४२० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती पापोपदेश इत्याख्यायते । प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाऽग्निविध्यापनवातप्रतिघातवनस्पतिच्छेदनाद्यकर्म प्रमादाचरितमिति कथ्यते । दण्डपाशबिडालश्वविषशस्त्राग्निरज्जुकशादीनि हिंसासाधनानि । तेषां समर्पणं हिंसोपकरणप्रदानमित्युच्यते । रागादिप्रवधितो दुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृति रशुभश्रुतिरिति । एतस्मादनर्थदण्डाद्विरतिः कार्या। पूर्वयोदिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चंक्रमणादिकं विषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थ मध्येऽनर्थदण्डवचनं कृतमिति बोद्धव्यम् । प्रतिनियतदेशकाले सामायिके स्थितस्य महाव्रतत्वं पूर्ववद्वेदितव्यम् । स्यान्मतं ते - सामायिके सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणे स्थितस्य श्रावकस्यापि संयमित्वं पापोपदेश है, जैसे-इस देश में दास दासी सुलभ हैं, उनको दूसरे देश में ले जाकर बेचेंगे तो बहुत धनका लाभ होगा, ऐसा कहना सिखाना क्लेश वाणिज्य पापोपदेश कहलाता है । गाय, भैंस आदिको यहां से ले जाकर दूसरे देश में बेचेंगे तो बहुत धन का लाभ होगा ऐसा वचन कहना तिर्यग्वाणिज्य पापोपदेश है। जाल आदिके द्वारा जो शूकरको पकड़ते हैं जो पक्षियों को पकड़ते हैं ऐसे सौकरिक, शाकुनिक आदि नीच पुरुषों को कहना कि हिरण, शूकर पक्षी आदि अमुक देश वनादि में हैं सो यह वधकोपदेश है । आरंभ करने वाले किसान आदि को कहना कि जमीन को ऐसे जोतना, पानी की ऐसी सिंचाई करना, भूमिको ऐसे जलाना, ऐसी हवा करना, वनस्पति घास आदि को ऐसे काटना, इसतरह आरम्भकारक उपदेश देना भी आरम्भक पापोपदेश कहलाता है । प्रयोजन के बिना वृक्ष का छेदना, पृथिवी खोदना, जोतना, सुरंग लगाना, सिंचाई करवाना, अग्नि लगाना, वायु संचार और वनस्पति को काटना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । दण्डा, जाल, बिल्ली, कुत्ता आदि का विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सी इत्यादि जो हिंसा के साधन हैं उनको किसी को देना हिंसा उपकरण प्रदान कहलाता है। रागादि को बढ़ाने वाली दुष्ट कथा को सुनना, उसकी शिक्षा देना इत्यादि कार्य में लगन होना अशुभ श्रुति है, इन अनर्थ दण्डों से विरक्त होना चाहिए। सूत्र में दिग्व्रत और देशव्रत सबसे पहले कहा है बीच में अनर्थदण्ड व्रत कहा है, उसको उपभोग परिभोग प्रमाण व्रतके पहले रखा है, इससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि व्यर्थका इधर-उधर घूमना, व्यर्थका कार्य करना, व्यर्थ विषय सेवन इत्यादि निष्प्रयोजन कार्यको नहीं करना चाहिए, सर्वत्र अतिरेक से दूर रहना चाहिए। प्रतिनियत देश और काल में सामायिक करने वाले के महाव्रतपना आता है ऐसा पहले के समान समझ लेना चाहिए अर्थात् सामायिक में जितने काल तक श्रावक स्थित
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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