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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४१५ देश इत्युच्यते । असत्युपकारे पापादानहेतुः पदार्थोऽनर्थ इत्युच्यते । न विद्यतेऽर्थ उपकारलक्षणं प्रयोजन यस्यासावनर्थ इति व्युत्पत्तेः । स च दण्ड इव दण्ड: पीडाहेतुत्वात् । ततोऽनर्थश्चासौ दण्डश्चानर्थदण्ड इत्यवधार्यते। विरमणं विरतिनिवृत्तिरित्यर्थः । दिक्च देशश्चानर्थदण्डश्च दिग्देशानर्थदण्डास्तेभ्यो विरतिदिग्देशानर्थदण्डविरतिः । विरतिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । दिग्विरतिर्देशविरतिरनर्थदण्ड. विरतिरिति । समयनं समयः । प्रतिनियतकायवाङ मनस्कर्मपर्यायार्थप्रतिनिवृत्तत्वादात्मनो द्रव्यार्थेनैकत्वेन गमनमित्यर्थः । समय एव सामायिकम् । समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । प्रोषधशब्दः पर्ववाची। शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रियाण्युपेत्यास्मिन्वसतीत्युपवासः । अशनपानभक्ष्यलेह्यलक्षणश्चतुर्विधाहारपरित्याग इत्यर्थः । प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यतेऽनुभूयत इत्युपभोगोऽशनपानगन्धमाल्यादिरुच्यते । सकृद्भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यत इति परिभोग आच्छादनप्रावरणालङ्कारशयनासनगृहयानवाहनादिरभिधीयते । परिमाणमियत्तावधारणमित्यर्थः । उपभोगश्च परिभोगश्चोपभोगपरिभोगौ । तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् । जिस क्रिया में उपकार-लाभ नहीं हो और पापोंका आस्रव हो ऐसा पदार्थ या क्रिया अनर्थ कहलाता है । नहीं है अर्थ उपकार रूप प्रयोजन जिसके वह अनर्थ है इस तरह अनर्थ शब्दकी व्युत्पत्ति है । दण्डके समान पीड़ादायक को दण्ड कहते हैं । अनर्थ दण्ड पदों में कर्मधारय समास है । विरमण, विरति और निवृत्ति ये सब एकार्थवाची शब्द हैं । दिग्देशानर्थ दण्ड पदों में द्वन्द्व समास है पुनः तत्पुरुष समास द्वारा विरति पद जोड़ा है। विरति शब्दको प्रत्येक के साथ जोड़ना-दिग्विरति देशविरति और अनर्थ दण्ड विरति । समयन को समय कहते हैं-मन, वचन, कायकी क्रियाको नियमित करके आत्मा का पर्यायार्थ के प्रति तो निवृत्त होना और द्रव्यार्थरूप से एकत्व को प्राप्त करना समय कहलाता है, समय ही सामायिक है अथवा समय जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। प्रोषध शब्द पर्ववाची है। पांचों ही इन्द्रियां शब्दादि विषयों को ग्रहण करने में उत्सुकता से रहित होकर अपनी आत्मा में आकर ठहर जाती हैं वह उपवास कहलाता है । भाव यह है कि अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य स्वरूप चार प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास है, प्रोषध-पर्वके दिन में उपवास करना प्रोषधोपवास है। आत्मसात् कर जो भोगा जाता है, अनुभव किया जाता है उपभोग है, भोजन, पान, गन्ध मालादि उपभोग है । एक बार भोगकर छोड़कर पुनः जिसको भोगा जा सके वे पदार्थ परिभोग कहलाते हैं, आच्छादन, प्रावरण, (बिछोना, ओढ़ना) अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान, वाहनादि परिभोग पदार्थ हैं । इतनेपन का निश्चय करना परिमाण है । उपभोग और परिभोग पदार्थों का प्रमाण करना उपभोग-परिभोग परिमाण वत
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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