SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती संयममविनाशयन्नतति गच्छतीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथिः-अनियतकालागमन इत्यर्थः । संविभजनं संविभागः । अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभागः । सामायिकं च प्रोषधोपवासश्च उपभोमपरिभोगपरिमाणं चातिथिसंविभागश्च सामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागाः। दिग्देशानर्थदण्डविरतिश्च सामायिकादयश्च दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिमोगपरिमाणातिथिसंविभागाः। त एव व्रतानि तैः सम्पन्नौ युक्तो दिग्विरत्यादिसम्पन्नः । व्रतशब्द: प्रत्येकमभिसम्बध्यते । दिग्विरतिव्रतं देशविरतिव्रतमनर्थदण्डविरतिव्रतमित्येतानि त्रीणि गुणव्रतानि । सामायिकव्रतं प्रोषधोपवासव्रतमुपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतमतिथिसंविभागव्रतमित्येतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि । समुदितानि चैतानि दिग्विरत्यादीनि सप्ताहिंसादिपञ्चाणुव्रतपरिरक्षणार्थानि श्रावकस्य शीलाभिधानानि सम्भवन्ति । तत्र दुष्परिहरैः क्षुद्रजन्तुभिराकुला दिशोऽतस्तन्निवृत्तिः कर्तव्या । तासां परिमाणं च योजनादिभिः पर्वतादिभिः प्रसिद्धाऽभिज्ञानैः कर्तव्यम् । सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्वे परिमिताद्दिगवधेर्बहिर्न गमिष्यामीति । ततो बहिहिंसादिपरिणामनिवृत्तेः परप्रेरितस्यापि मणिरत्नादिसंप्राप्तितृष्णाप्राकाम्यनिरोधसम्भवाच्च दिग्विरतिः श्रेयसी। मनोवाक्काययोगैः कृतकारिकहलाता है । संयम की रक्षा करते हुए जो गमन करता है वह अतिथि है, अथवा इसकी तिथि नहीं है वह अतिथि है अर्थात् जिनका आने का काल निश्चित नहीं है ऐसे साधु को अतिथि कहते हैं । अतिथि के लिये संविभाग करना अतिथि संविभागवत है । सामायिक आदि पदों में द्वन्द्व समास हुआ है। पुनः दिग् दिशा आदि पदों के साथ उनका द्वन्द्व समास हुआ है । इन व्रतों से जो सम्पन्न है वह दिग्देशादि व्रतों से सम्पन्न श्रावक कहा जाता है । व्रत शब्द प्रत्येक के साथ जुड़ा है । दिग्विरति व्रत, देशविरति वृत और अनर्थ दण्ड विरति व्रत ये तीन गुणवत कहलाते हैं। सामायिक व्रत, प्रोषधोपवास व्रत, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग व्रत ये चार शिक्षावत हैं । सब मिलकर सात हैं ये अहिंसा आदि पांच अणुव्रतों की रक्षा करते हैं अतः श्रावक के शील कहलाते हैं । दिशायें क्षुद्र जीवों से व्याप्त होती हैं इसलिये दिशाओं का प्रमाण किया जाता है। वह प्रमाण योजनादि से, पर्वत नदी आदि प्रसिद्ध चिह्न विशेषों से करना चाहिए । दिशाओं की मर्यादा करने वाला व्यक्ति उस अपनी मर्यादा के बाहर बहुत से प्रयोजन होने पर भी गमन नहीं करूंगा। इस प्रकार कृत संकल्प रहता है, उससे मर्यादा के बाहर होने वाली हिंसा से उसके परिणाम दूर रहते हैं, यदि उसको कोई प्रेरणा भी देवे कि अमुक देश में मणि रत्न आदि की तुमको प्राप्ति हो जायगी तो भी वह मर्यादा से बाहर तृष्णा कांक्षा को रोक देता है, इस तरह दिशा से विरति अर्थात् दिशाओं में गमनागमन का प्रमाण कल्याणकारी है। दिग्वत का पालन करने
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy