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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वधात्त्रिधानिवृत्तोऽगारीत्याद्यमणुव्रतम् । स्नेहद्वेषमोहवशाद्यदसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवशादवश्यं परित्यक्तमपि यददत्तं ततो निवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम् । उपात्ताऽनुपात्ताऽन्याङ्गनासङ्गाद्विरतरतिर्विरताविरत इति चतुर्थमणुव्रतम् । धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात्कृतपरिच्छेदो गृहीति पंचममणुव्रतं भवति । स्थूलतरविरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्यापरमपि विशेषमाह
दिग्वेशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोग
परिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥२१॥ आकाशप्रदेशपंक्तिदिगित्युच्यते । आदित्यादिगत्योदयास्तमनपरिच्छिन्नया विभक्तस्तद्भदः । प्राग्दिग्दक्षिणाप्रतीच्युत्तरोलमधोविदिशश्चेति । ग्रामनगरगृहापवरकादीनामवधृतपरिमाणानां प्रदेशो
उत्तर-द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के वध-हिंसा से मन वचन काय द्वारा निवृत्त होता है यह अगारी का पहला अहिंसाणु वत कहलाता है, स्नेह, द्वेष और मोह के वश से जो असत्य वचन बोले जाते हैं उन वचनों से जो निवृत्त होता है वह गृहस्थ का दूसरा सत्याणु व्रत है । जिस वस्तु को लेने से दूसरों को पीड़ा होती है, राजा के भय आदि से जिसको अवश्य छोड़ना पड़ता है ऐसी परायी वस्तु के ग्रहण करने से जो व्यक्ति सदा दूर रहता है वह श्रावक तीसरे अचौर्याणु व्रत का धारक कहा जाता है । किसी के द्वारा गृहीत हो चाहे अगृहीत हो दोनों ही प्रकार की अन्य की स्त्री से विरक्त होना श्रावक का चौथा ब्रह्मचर्याणवत है। धन, धान्य, खेत आदि पदार्थों का अपने इच्छानुसार प्रमाण करना पांचवां परिग्रह परिमाण नामका अणुव्रत है ।
___ इस तरह जिसने स्थूल विरतिको स्वीकार किया है ऐसे श्रावक के और भी जो विशेष होते हैं वे बताते हैं
सूत्रार्थ-दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोगप्रमाण और अतिथि संविभाग इन सात व्रतों से संपन्न भी श्रावक होता है।
आकाश प्रदेशों की पंक्ति को दिग्-दिशा कहते हैं, सूर्य आदि के गमन से तथा उनके उदय तथा अस्त के निमित्त से उस दिशा में विभाग (भेद) होते हैं, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व, अध और चार विदिशायें ये दिशा के दस भेद हैं। ग्राम, नगर, गह, कोठड़ी आदि से जिसका निश्चित प्रमाण होता है वह प्रदेश देश कहा जाता है।