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सप्तमोऽध्यायः
[ ४१५ वा सोऽपि राजेति व्यपदिश्यते । यथा वा गृहापवरकादिनगरैकदेशनिवास्यपि नगरावास इति शब्द्यते, तथाऽष्टादशशीलसहस्रचतुरशीतिगुणशतसहस्रधरत्वादनगारः सम्पूर्णव्रत इति कथ्यते । तद्भावात्संयतासंयतोप्यणुव्रतधरत्वान्नंगमसंग्रहव्यवहारनयविवक्षया व्रतीति व्यपदिश्यते । एवमगार्यनगारश्चेति द्वेधा भवतीति वेदितव्यः । अत्राह-हिंसादीनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृत्तः स खल्वगारी व्रती भवति ? नैवम् । किं तहि ? पञ्चतय्या अपि विरतेर्वैकल्येन विवक्षित इत्युच्यते
अणुव्रतोऽगारी ॥ २० ॥ अणुशब्दः सूक्ष्मवचनः । अणूनि व्रतान्यस्य सोऽणुव्रतोऽगारीत्युच्यते । कुतोऽस्य व्रतानामणुत्वमिति चेत्सत्यं सर्वसावद्यनिवृत्त्यसम्भवात् । कुतस्तो सौ निवृत्त इत्युच्यते ? द्वोन्द्रियादिजङ्गमप्राणि
उसे भी राजा कहते हैं, अथवा नगर का एक भाग और उसका भी एक हिस्से स्वरूप घरके भी कोठड़ी में रहने वाले व्यक्तिको कह देते हैं कि यह नगर निवासी है उसी प्रकार अठारह हजार शीलका और चौरासी लाख उत्तर गुणोंका धारक होने पर अनगार पूर्णव्रती कहलाता है, इन सब व्रतोंका संयमासंयम पालक के अभाव है तो भी अणुव्रतों को धारण करने वाला होने से उसको नैगम, संग्रह और व्यवहार नयोंकी अपेक्षा व्रती कहते हैं। इस प्रकार अनगार और अगारी ऐसे दो प्रकार के व्रती जानने चाहिये।
प्रश्न-हिंसादि पांच पापों में से किसी एक पाप से जो विरत है वह अगारी क्या व्रती कहलाता है ?
उत्तर-नहीं कहलाता, किन्तु जो पांचों पापों से एक देश विरत होता है वह व्रती होता है । आगे इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ-अणुव्रतों का धारक अगारी होता है ।
अणु शब्द सूक्ष्मका वाचक है, सूक्ष्म-अणु है व्रत जिनके वह अगारी अणुव्रती कहा जाता है। ..
प्रश्न-इसके व्रतों को अणुपना क्यों है ?
उत्तर-सर्व सावद्य का त्याग नहीं होने के कारण गृहस्थ के व्रतों को अणु-सूक्ष्म व्रत कहते हैं।
प्रश्न-किस सावद्य से यह गृहस्थ विरक्त होता है ?