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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
अगार्यनगारश्च ॥ १६ ॥ . प्रतिश्रयाथिभिर्जनैरंगयते गम्यते तदित्यगारं वेश्मेत्यर्थः । अगारमस्यास्तीत्यगारी । न विद्यतेऽगारमस्येत्यनगारः । स्यान्मतं ते-शून्यागारदेवकुलाद्यावासस्य मुनेरगारित्वं प्राप्तमनिवृत्तविषयतृष्णस्य कुतश्चित्कारणादगृहं विमुच्य वने वसतोऽनगारत्वं चेति नियमो न सिध्यतीति । तन्न युक्तम् । कुतः ? भावागारस्य विवक्षितत्वात्-चारित्रमोहोदये सत्यगारसम्बन्धं प्रत्यनिवृत्तिपरिणामोऽगारमित्युच्यते । स यस्यास्त्यसौ वने वसन्नप्यगारीति व्यपदेशमर्हति । तदभावादनगार इति च भवतीत्यदोषः। ननु गृहस्थस्य व्रतकारणसाकल्याभावाद्वतित्वं न प्राप्नोतीति चेतन्न-नैगमादिनयवशात्तदुपपत्ते राजादिव्यपदेशवत् । यथा द्वात्रिंशज्जनपदसहस्राधिपतिः सार्वभौमश्च यो न भवति एकजनपदपतिस्तदर्धेश्वरो
सूत्रार्थ- अगारी और अनगार ऐसे व्रती के दो भेद होते हैं।
आश्रय के इच्छुक पुरुषों द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, स्वीकार किया जाता है वह अगार अर्थात् घर है । अगार जिसके है वह अगारी है, और जिसके अगार नहीं होता वह अनगार है।
शंका-सूने मकान, देवकुल आदि स्थानों पर निवास करने वाले मुनि के भी ऐसा लक्षण करने से अगारीपने का प्रसंग आता है। तथा जिसकी विषय तृष्णा नष्ट नहीं हुई है ऐसा कोई पुरुष किसी कारणवश घरको छोड़कर वनमें रहता है उसके अनगारत्व प्राप्त होगा। इस तरह अगारी अनगारपने का कोई नियम सिद्ध नहीं होता है ?
___समाधान-ऐसा नहीं कहना, यहां पर भाव अगार की विवक्षा ली गयी है, चारित्रमोहनीय कर्मके उदय होने पर घरके सम्बन्ध के प्रति जो भाव है वह जिसके दूर नहीं हुआ है वह भाव अगार है, ऐसा भावागार जिसके है वह व्यक्ति वनमें रहता हुआ भी अगारी ही कहलाता है । जिस पुरुष के वैसा भावागार नहीं है वह अनगार है, इस तरह कोई दोष नहीं है ।
शंका-गृहस्थके व्रतोंकी पूर्णता नहीं होती अतः वह व्रती नहीं कहा जा सकता ?
समाधान-ऐसा नहीं है, नैगम आदि नयोंकी अपेक्षा गृहस्थ के व्रती संज्ञा बन जाती है, जैसे राजा आदि संज्ञा बनती है, अर्थात् जो बत्तीस हजार देशों का स्वामी सार्वभौम चक्रवर्ती राजा नहीं है, केवल एक देशका अथवा आधे देशका स्वामी है तो