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सप्तमोऽध्यायः
निःशल्यो व्रती ॥ १८ ॥
विविधवेदनाशलाकादिभि: प्राणिगणं शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । ननु लोके काण्डादिकं शल्यमिति रूढ, न तु मायादिकमिति चेत्सत्यमुपचारात्तस्यापि शल्यव्यपदेशोपपत्तेः । यथा हि शरीरानुप्रवेशिकाण्डादिप्रहरणं शरीरिणो बाधाकरं शल्यं, तथा कर्मोदयविकारोऽपि शारीरमानसबाधाहेतुत्वाच्छयमिव शल्यमित्युच्यते । तच्च त्रिविधं - मायानिदानमिथ्यादर्शनभेदात् । माया निकृतिर्वञ्चनेत्यनर्थान्तरम् । विषयभोगाकांक्षा निधानमुक्तम् । मिथ्यादर्शनमप्यतत्त्वश्रद्धानमुक्तम् । एतस्मात्त्रिविधाच्छत्यान्निष्क्रान्तो निःशल्यः । स एव पञ्चतयव्रतयोगावतीति विवक्षितः । सशत्यस्य पुनः सत्स्वपि व्रतेषु व्रतित्वानुपपत्तेः । यथा बहुक्षीरघृतो यो देवदत्तः स एव गोमानिति व्यपदिश्यते । बहुक्षीरघृताभावे सतीष्वपि गोषु न गोमानिति । सोऽयमधिकृतो व्रती द्वेधा भवती त्याह
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सूत्रार्थ - जो शल्यों से रहित है वह व्रती होता है । विविध वेदनारूपी शलाकाओं से जो जीवों को कष्ट देता है वह शल्य कहलाता है ' शृणाति इति शल्यं' ।
प्रश्न- लोक में काण्ड - काटा आदिको शल्य कहने की रूढि है, मायादि को तो कोई शल्य- काटा नहीं कहता है ?
उत्तर -- ठीक है । किन्तु यहां पर उपचार से मायादिको शल्य कहा है, क्योंकि.. जैसे कण्टक काण्डादि शरीर में घुसकर जीवों को बाधा पहुंचाते हैं अतः शल्य कहलाते हैं, वैसे ही कर्मोदयरूप कारण से उत्पन्न हुए मायादि विकार भी शारीरिक और मानसिक बाधा के कारण होने से शल्य कहलाते हैं । यह शल्य तीन प्रकार का हैमाया, निदान और मिथ्यात्व । माया, विकृति और वञ्चना ये सब एकार्थवाची शब्द हैं । विषय भोगोंकी वाञ्छा होना निदान है । अतत्त्व श्रद्धानको मिथ्यात्व कहते हैं । इन तीन शल्यों से जो निष्क्रान्त-रहित है वह निःशल्य है । वही निःशल्य पुरुष पञ्च प्रकार के व्रतों के योग से व्रती होता है ऐसा अर्थ समझना । जो शल्य युक्त है उसके व्रतों के होने पर भी व्रती संज्ञा नहीं होती । जैसे जो देवदत्त बहुत से दूध तथा आदि रखता है वही गोमान् कहलाता है, यदि उस देवदत्त के दूध और घी नहीं हैं तो गायों के रहते हुए भी गोमान् नहीं कहलाता है ।
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जो यह व्रती है वह दो प्रकार का होता है ऐसा अगले सूत्र द्वारा प्रतिपादन करते हैं—