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________________ ४१२ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती मूर्खाकारणत्वाबाह्योऽपि मूर्छत्युपचर्यते । ततस्तस्यापि परिगृह्यमाणत्वात्परिग्रहत्वम् । यथाऽन्न वै प्राणा इति प्राणकारणेऽन्ने प्राणव्यपदेशोपचार इति । ननु ज्ञानदर्शनचारित्रेष्वपि ममेदमिति सङ्कल्पः परिग्रहः प्राप्नोतीति चेत्तन्न, प्रमत्तयोगाधिकारात् । ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमत्तस्य मोहाभावान्मूर्छा नास्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धम् । किं चाऽहेयत्वात्तेषां ज्ञानादीनामात्मस्वभावानतिवृत्तोरपरिग्रहत्वम् । रागादयस्तु कर्मोदयतन्त्रा इत्यनात्मस्वभावत्वाद्धेयाः । अतस्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति युज्यते । परिग्रहमूलाश्च सर्वदोषानुषङ्गाः । ममेदमिति हि सङ्कल्पे सति संरक्षणादयो जायन्ते । तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमन्तं जल्पति, चौर्य चाचरति, मैथुने च कर्मणि प्रतियतते । तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः । इहाप्यनुपरतव्यसनमहार्णवावगाहनं भवति । अत्राह-किमभिहितहिंसादिविरतिमात्रयोगादेव व्रती भवत्याहोस्विद्विशेषान्तरादित्यत्रोच्यते-- अतः उनके भी परिग्रहपना सिद्ध होता है। जैसे 'अन्न ही प्राण है' ऐसे कथन में प्राण के कारणभूत अन्न में प्राण का उपचार होता है । __ शंका-ज्ञान दर्शन और चारित्र में भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प होता है उनके भी परिग्रहपना प्राप्त होता है ? समाधान—यह कथन ठीक नहीं है । यहां प्रमत्त योगका अनुवर्तन चल रहा है इसलिये ज्ञानदर्शन चारित्रधारी अप्रमत्त साधु के मोहके अभाव होने से मूर्छा नहीं है अतः वे निष्परिग्रही सिद्ध होते हैं। दूसरी बात यह है कि ज्ञानदर्शनादिक तो आत्मा के स्वभाव होने से अहेय है-छोड़ने योग्य नहीं है । अतः वे अपरिग्रह स्वरूप हैं । रागादिक जो विकार हैं वे कर्मके उदयके अधीन हैं आत्माके स्वभाव नहीं होने से हेय हैं अतः उनमें 'यह मेरा है ऐसा संकल्प करना परिग्रह कहलाता है । परिग्रह के कारण ही सर्व दोष उत्पन्न होते हैं । क्योंकि यह मेरा है ऐसा विचार होने पर ही उनकी रक्षा करना, अर्जन करना इत्यादि क्रियायें की जाती हैं उनसे हिंसा अवश्य होती है, परिग्रह के लिए व्यक्ति झूठ बोलता है, चोरी करता है और मैथुन कार्य में भी प्रवृत्त होता है, इन खोठे कार्यों से नरकायु आदि कर्मका बन्ध होकर जीव नरकादि में महान दुःख भोगता है । इस लोक में भी सतत कष्टों के महासागर में डूबा रहता है। इस तरह ये सर्व दोष परिग्रह के कारण होते हैं। प्रश्न-हिंसादि पापों से विरक्त होने मात्र से व्रती होता है अथवा दूसरी ओर भी कुछ विशेषता होती है ? | उत्तर-अब इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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