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सप्तमोऽध्यायः
[ ४११ गुणा यस्मिन्परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद्ब्रह्मत्युच्यते । न ब्रह्माऽब्रह्म । ततः प्रमत्तयोगाद्यत् स्त्रीपुरुषविषयं पुरुषद्वयविषयं वा मैथुनं तदब्रह्मति व्यपदिश्यते । अथ परिग्रहस्य किं लक्षणमित्याह
मूर्छा परिग्रहः ॥ १७ ॥ मूर्छनं मूर्छा । यद्यपि मूर्छयं मोहसामान्ये वर्तते, तथापि सामान्यरूपा विशेषेष्ववतिष्ठन्त इति कृत्वा नात्र वातपित्तश्लेष्मणामन्यतमस्य दोषस्य प्रकोपादुपजायमानो विकारो मूर्छा गृह्यते; किं तर्हि बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्तादीनां चेतनाऽचेतनानामभ्यन्तराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणा व्यापृतिमूर्छति कथ्यते । सैव परिग्रहणं परिग्रहः सङ्ग इत्यर्थः । अथ मतमेतन्ममेदमिति सङ्कल्पस्याध्यात्मिकत्वात्प्राधान्यमतस्तस्यैव परिग्रहत्वं स्यान्न पुनर्बाह्यस्येति । सत्यमेवं, तथापि
अहिंसा आदि गुण जिसके परिपालन में बढ़ते हैं वह 'ब्रह्म' कहलाता है, जो ब्रह्म नहीं वह अब्रह्म है । प्रमाद के योग से स्त्री पुरुष के विषयक या दो पुरुष के विषयक जो कर्म है वह मैथुन अब्रह्म कहलाता है ।
अब परिग्रह का लक्षण बतलाते हैंसूत्रार्थ-मूर्छा को परिग्रह कहते हैं ।
यद्यपि यह मूर्छा शब्द सामान्य मोह अर्थ में आता है तथापि 'सामान्य विशेषों में रहता है' इस नियम के अनुसार यहां पर वात पित्त श्लेष्मरूप दोषों में से कोई दोष कुपित होने पर विकार पैदा होता है-बेहोशी आती है-या पागलपना होता है उस मूर्छा को नहीं लिया गया है किन्तु बाह्य गो, भैंस, मणि, मोती आदि चेतन अचेतन पदार्थ और अभ्यन्तर के जो राग आदिक हैं उन उपधियों का संरक्षण, अर्जन संस्कार इत्यादि रूप जो लगन या आसक्ति होती है उसे मूर्छा कहा है उसीको परिग्रह और सङग कहते हैं।
__ शंका-'यह मेरा है' इसप्रकार का संकल्प अभ्यन्तर आत्मा में होता है, प्रधानता से यही मूर्छा होने से उसीके परिग्रहपना है बाह्य मणि मोती आदिको परिग्रहपना सम्भव नहीं है ?
समाधान-ठीक कहा, बाह्य मणि आदि पदार्थ मूछ का कारण होने से उनको मूच्छी ऐसा उपचार से कहा जाता है। इस तरह मणि आदिको ग्रहण किया जाता है