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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
प्रोच्यते । किं तर्हिचारित्रमोहोदये सति स्त्रीपुंसयोः परस्परगात्रोपश्लेषे सति सुखमुपलिप्समानयो परिणामो यः स मैथुनव्यपदेशभाग्भवति । ननु नायं शब्दार्थ इति चेत्, सत्यमेवमेतत्, तथापि प्रसिद्धिवशादर्थाध्यवसायसम्भव इतीष्टार्थो गृह्यते । अत एव यथा स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये वेदनापीडितयोः कर्म मैथुनं तथैकस्यापि चारित्रमोहोदयोद्रिक्तरागस्य हस्तपादपुद्गल संघट्टना दिब्रह्म सेवमानस्य मैथुनमिति व्यपदेशमर्हति । न चकस्मिन्नुपचारान्मैथुनव्यपदेश इति वक्तव्यं - स्पर्शव द्रव्यसंयोगपूर्वकस्पर्शाभिमान मुख्यसुखाऽविशेषात् द्वयोरिवैकस्यापि मैथुनशब्दलाभस्य मुख्यत्वात् । श्रहिंसादयो
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समाधान — नहीं आयेगा । क्योंकि स्त्री पुरुष के सभी क्रिया को मैथुन नहीं कहते हैं किन्तु चारित्र मोहनीय कर्म (वेदके) के उदय होने पर स्त्री और पुरुष का परस्पर में शरीर के उपश्लेष आलिंगनरूप जो क्रिया होती है जिसमें कि दोनों को रति सुखकी अभिलाषा रहती है वह क्रिया मैथुन कहलाती है जो अत्यन्त गाढ रागरूप परिणाम है ।
प्रश्न - मैथुन शब्दका ऐसा अर्थ तो नहीं निकलता उसका तो इतना ही अर्थ है कि युगल की - स्त्री पुरुष की क्रिया मैथुन ?
उत्तर — ठीक कहा । तथापि प्रसिद्धि के वश से अर्थ का निश्चय होता है । इस न्याय से मैथुन का उक्त अर्थ लिया गया है । इस तरह का अर्थ इष्ट होने पर निम्नलिखित बात भी सिद्ध होती है । जैसे चारित्र मोह कर्मके उदय होने पर काम वासना से पीड़ित स्त्री पुरुषों में जो क्रिया होती है वह मैथुन है वैसे ही काम से पीड़ित कोई अकेला ही स्त्री या पुरुष है चारित्रमोह का तीव्र उदय जिसके आ रहा है ऐसा व्यक्ति हाथ पैर पुद्गल का संघट्टन आदि करता है वह अब्रह्म का सेवन करता है उसकी वह क्रिया मैथुन कहलाती है ऐसा समझना चाहिए ।
प्रश्न - यह तो औपचारिक मैथुन है ?
उत्तर- - ऐसा नहीं कहना, स्पर्श वाले पदार्थ के संयोग से स्पर्श का अभिमान जिसमें प्रमुख है ऐसा जो सुख होता है वह सुख उभयत्र समान है, जैसे स्त्री और पुरुष के शरीर के संयोग से उन दोनों को स्पर्श सुखका अनुभव होता है वैसे एक व्यक्ति के अपने शरीर के अवयवों का परस्पर संयोग-संघट्ट होने से रति सुखका अनुभव होता है अतः एक को भी मिथुन और उसकी क्रियाको मुख्यता से मैथुन कहना उचित ही है, यह कथन औपचारिक मात्र नहीं है ।