SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती योगादित्यनुवृत्तेः । अप्रमत्तस्य हेयमिदमनुष्ठानादिकमित्यप्रशस्तमपि स्वरूपं वदतः सत्यवचनत्वोपपत्तेः । अथाऽनृतानन्तरमुद्दिष्टं यत्स्तेयं तस्य किं लक्षणमित्यत पाह अदत्ताऽऽवानं स्तेयम् ॥ १५॥ दीयते स्म दत्तं-परेण समर्पितमित्यर्थः । न दत्तमदत्तम् । आदानं हस्तादिभिर्ग्रहणमुच्यते । अदत्तस्याऽऽदानमदत्ताऽऽदानं स्तेयमिति वेदितव्यम् । ननु यद्यविशेषेणाऽदत्तस्याऽऽदानं स्तेयमित्युच्यते तहि कर्मादिकमप्यन्येनाऽदत्तमाददानस्य स्तेयं प्राप्नोतीति चेन्नैष दोषः-येषु मणिमुक्ताहिरण्यादिषु दानाऽऽदानयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिसम्भवस्तेष्वेव स्तेयव्यवहारोपपत्तेः । तेन कर्मणि नोकर्मणि च नास्ति स्तेयप्रसङ्गः । एतच्चाऽदत्तग्रहणसामर्थ्यादवगम्यते । यदि हि कर्म नोकर्माऽऽदानमपि स्तेयं स्यात्तदानी इसे छोड़ना चाहिए' इस क्रिया का अनुष्ठान आत्म कल्याण में बाधक है, इत्यादि रूप से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले वचन सत्य ही हैं। अब अनृतके अनन्तर कहा गया जो स्तेय है उसका लक्षण क्या है सो बताते हैं सूत्रार्थ-बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना स्तेय-चोरी है। परके द्वारा जो दिया गया है वह 'दत्त' कहलाता है। जो दत्त नहीं है वह अदत्त है, आदान अर्थात् हाथ आदि से लेना । अदत्त का ग्रहण करना चोरी है। शंका-यदि बिना दी वस्तु का ग्रहण चोरी है ऐसा अविशेषरूप से माना जायगा तो कर्म आदि भी किसी के द्वारा दिये नहीं जाते उसका ग्रहण होता ही रहता है फिर उसे अदत्तादान होने से चोरी कहना होगा ? अर्थात् कर्मका ग्रहण भी चोरी की कोटि में चला जायगा ? समाधान-यह शंका निर्मूल है । जो मणि मोती, सुवर्ण आदि पदार्थ हैं जिनमें लेन देन का व्यवहार चलता है ऐसे पदार्थों में चोरी नामका व्यवहार बनता है, अर्थात् जिन पदार्थों को हाथ आदि से उठाकर रखना किसी को देना इत्यादि प्रवृत्ति हो सकती है उनको यदि बिना दिये बिना पूछे ग्रहण करते हैं तो चोरी कहलाती है । इस तरह का लेना देना कर्म नोकर्म पदार्थ में सम्भव ही नहीं है अतः उनके ग्रहण अर्थात् कर्मबंध होने में चोरी नहीं होती है, यह बात तो 'अदत्तादानम्' इस विशेषण के सामर्थ्य से ही जानी जाती है । यदि कर्म नोकर्म के ग्रहण को भी चोरी कहा जाता तो 'अदत्तादान'
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy