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________________ सप्तमोऽध्यायः [ ४०७ सत्यं तु तदेव स्याद्यत्सत्सु विचारकेषु साधुवचनम् । न ऋतमनृतम् । किं पुनरप्रशस्तमिति चेदुच्यतेयत्प्राणिपीडाकरं विद्यमानार्थविषयं यच्चाऽविद्यमानार्थविषयं तत्सर्वमप्रशस्तमित्युच्यते । तदेवाऽसदभिधानमनृतमित्यभिधीयते । अत एव मिथ्यानृतमिति लाघवार्थ सूत्रं न कृतम् । एवं हि क्रियमाणे मिथ्याशब्दस्य विपरीतार्थवाचित्वात्कृतनिह्नवेऽभूतोद्भावने च यदभिधानम्, यच्च नास्त्यात्मा, नास्ति परलोक इति, श्यामाकतण्डुलमात्र आत्मा, अंगुष्ठपर्वमात्रः, सर्वगतो, निष्क्रिय इति वाऽभिधानं तदेवाऽनृतं स्यात् । यत्तु विद्यमानाऽर्थविषयं परप्राणिपीडाकरं तन्न स्यात् । असदिति पुनरुच्यमानेऽप्रशस्तार्थ यत्तत्सर्वमन्तं संगृहीतं भवति । ननु हेयानुष्ठानाद्यनुवदनमप्यप्रशस्ताभिधानं, तदप्यसत्यं प्राप्नोतीति चेत्तन्न-प्रमत्त सत्य वह कहलाता है जो सत् विचारकों में साधु वचन कहता। जो ऋत नहीं है वह अनृत है । वह अप्रशस्त वचन क्या है कौनसा है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं कि-जो प्राणियोंको पीडाकारक है वह वचन चाहे विद्यमान अर्थको कह रहा हो चाहे अविद्यमान अर्थको कह रहा हो वह सर्व अप्रशस्त वचन है उस वचन को 'असदभिधानमनृतम्' कहते हैं। इसी अर्थको स्पष्ट करने हेतु 'मिथ्यानृतम्' ऐसा लघु सूत्र नहीं बनाया है, मिथ्या शब्द विपरीत अर्थका वाचक है, उसका प्रयोग निह्नव करना, असत् बातको प्रगट करना, आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है इत्यादि असत् कहना, श्यामाकतंडुलसावाका चावल जितना छोटा आत्मा है, अथवा अंगूठे बराबर आत्मा है। अथवा आत्मा सर्वगत और निष्क्रिय है, इत्यादि जो विपरीत कथन है वचन है वह तो असत्य ठहरेगा किन्तु विद्यमान होते हुए भी जो प्राणियों को पीड़ा देने वाला है वह वचन असत्य नहीं ठहरेगा, असत् ऐसा कहने से जितने भी अप्रशस्त वचन हैं उन सबका संग्रह हो जाता है। शंका-यह हेय है, यह अनुष्ठान करने योग्य है इत्यादि कहना भी अप्रशस्त वचन है क्योंकि ऐसा वचन तो जो हेयका अनुष्ठान करता है उसको अप्रिय-पीड़ाकारक लगता है, अतः जो प्राणि पीड़ाकारक हो वह असत् वचन है ऐसा लक्षण करने से हेय आदि के प्रतिपादक वचन असत्य के कोटि में चले जाते हैं ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए ! देखिये ! यहां 'प्रमत्तयोगात्' पदका अध्याहार है, प्रमाद के योग से अर्थात् दूसरों को दुःखी करने के दृष्टि से यदि हेय आदि वचन कहे जाते हैं तो वह असत् है किन्तु जो अप्रमत्त है दूसरों को दुःखी करना या ठगने का जिसका भाव नहीं है उस अप्रमत्त पुरुष के 'यह कार्य त्याज्य है
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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