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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती उपधेस्त्याजको वाऽपि सोपधिर्वा मुनिर्यदि ।
अप्रमत्तः स मोक्षार्थी नेतरो जिनशासने ।। इति ।। __ननु साधूक्त भवता प्राणव्यपरोपणं हिंसेति, परंतु प्राणानामेव परस्परतो वियोगे हिंसा, न कश्चित्प्राणी विद्यत इति चेत्-तन्न युक्त वक्तुम् । कुतः ? प्राणिनः कर्तु रभावे प्राणाभावप्रसङ्गात् । इह हि कुशलाकुशलात्मककर्मपूर्वकाः प्राणास्तच्च कर्माऽसति कर्तर्यात्मनि न सम्भवतीति प्राणाभावः स्यात् । अतः प्राणसद्भाव एव प्राणिनोऽस्तित्वं गमयति-सन्दंशकादिकरणसद्भावेऽयस्कारससिद्धिवत् । इदानी हिंसानन्तरोद्दिष्टाऽनृतलक्षणमाह -
असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ।। सच्छब्दोऽयं प्रशस्तवाची । न सदसदप्रशस्तमिति यावत् । अभिधानशब्दोऽयं करणादिसाधनः । अभिधीयतेऽनेन अभिधा वाऽभिधानम् । असतोऽर्थस्याऽभिधानमसदभिधानम् । ऋतं सत्यार्थे वर्तते ।
होवे किन्तु यदि वह प्रमाद रहित अप्रमत्त है तो मोक्ष प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं कर सकता अर्थात् प्रमत्त मुनि मोक्षको प्राप्त नहीं करता ॥६॥ .
शंका-आपने ठीक कहा कि प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है, किन्तु प्राणों का ही परस्परमें वियोग करना हिंसा है, क्योंकि प्राणों का धारक कोई प्राणी नहीं है ? अर्थात् प्राण है प्राणी नहीं है ? ___समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कस्विरूप प्राणी-जीव के अभाव में प्राण नहीं रह सकते हैं । देखिये ! पुण्य और पापरूप कर्मके कारण प्राण होते हैं, वे कर्म यदि कर्ता आत्मा न हो तो हो ही नहीं सकते, इस तरह प्राणोंका अभाव हो जाने का प्रसंग आता है । अतः प्राणों का जो सद्भाव दिखायी दे रहा है वही प्राणीके अस्तित्वको सिद्ध करता है । जैसे संडासी आदि उपकरण के सद्भाव में अयस्कार आदि का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
अब हिंसाके अनन्तर जो झूठ कहा है उसका लक्षण बताते हैंसूत्रार्थ-असत् भाषण झूठ कहालाता है ।
सत् शब्द प्रशंसावाची है, जो सत् नहीं है वह असत् अर्थात् अप्रशस्त । अभिधान शब्द करण आदि साधनों से निष्पन्न होता है-'अभिधीयतेऽनेन अभिधा वा अभिधानं' असत् अर्थ का कथन करना असत् अभिधान है। ऋत शब्द सत्यार्थ का वाचक है ।