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सप्तमोऽध्यायः
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नामुपालम्भोऽस्ति । कुत इति चेत् — भिक्षोर्ज्ञानध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाऽभावात् । सूक्ष्माणां च पीडनासम्भवात् । स्थूलानां परिहर्तुं शक्यत्वाच्च । तथा चोक्तम्
सूक्ष्मा न प्रतिपीडयन्ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः । ये शक्ास्ते विवर्ण्यन्ते का हिंसा संयतात्मनः ॥ हिंस्यन्तां प्राणिनो मा वा न हिंसा बाह्यवस्तुनः । हिंसापरिगतो जीवो हिंसेत्येष विनिश्चयः ।।
कोऽपि भूतानां हिंसको यः प्रमाद्यति । हिंसकोऽपि च भूतानामप्रमाद्यन्न हिंसकः ।। स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्वं प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥ प्रमादः सकषायत्वं सा हिंसा संसृतेः पदम् । तस्मात्प्रमादमुक्तानां न हिंसाऽस्ति मनागपि ॥
में जीव हैं और आकाश में भी जीव हैं इस तरह जीवोंके समूह से व्याप्त लोकमें रहता. हुआ साधु अहिंसक कैसे हो सकता है ? || १||
समाधान - यह दोषारोपण ठीक नहीं है । कैसे सो बताते हैं - जैन साधु हमेशा ज्ञान ध्यान में तत्पर रहते हैं उनके प्रमत्त योग नहीं होता । दूसरी बात यह है कि जो सूक्ष्म जीव होते हैं उनका घात नहीं होता । जो स्थूल जीव हैं उनका बचाव कर सकते हैं । कहा भी है— सूक्ष्म जीव तो पीड़ित नहीं किये जा सकते और जो स्थूल जीव हैं उनमें शक्यों को रक्षण करते ही हैं अतः संयमी साधुके कौनसी हिंसा होगी ? अर्थात् साधु के द्वारा हिंसा नहीं होती ||१|| बाहर में जीवों का घात होवे अथवा न होवे किन्तु हिंसा का परिणाम है तो वह जीव हिंसक है || २ || जो प्रमाद करता है वह जीवों का अहिंसक होकर भी हिंसक कहलायेगा और जो प्रमाद नहीं करता है वह जीवोंका घातक होकर भी हिंसक नहीं माना जाता ||३|| प्रमादवान आत्मा पहले अपने द्वारा अपना घात अवश्य करता है पीछे अन्य प्राणीका घात होवे या न होवे ||४|| कषाय युक्त परिणाम होना प्रमाद है वह हिंसा कहलाती है और वही संसार का कारण है, इसलिये जो प्रमाद नहीं करते प्रमाद से रहित हैं उनके किञ्चित भी हिंसा नहीं मानी गयी है । ||५|| जिनशासन में मुनि उपधिका त्यागी हो चाहे उपधि सहित