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________________ ४०४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तन्न । कुतः ? सत्यप्यन्यत्वे पुत्रकलत्रादिवियोगे तापदर्शनात् । किंच, यद्यपि शरीरिशरीरयोर्लक्षणभेदान्नानात्वं, तथापि बन्धं प्रत्येकत्वात्तद्वियोगपूर्वकदुःखोत्पत्तेरधर्मसिद्धिः । ये तु निष्क्रियत्वनित्यत्वशुद्धत्वसर्वगतत्वादिभिरेकान्तेनात्मानं मन्यन्ते तेषां शरीरेण सह बन्धाऽभावाद् दुःखादीनामनुत्पत्तिर्भवेत् । एवं च सति प्रमत्तयोगाऽभावे प्राणव्यपरोपणमात्रं द्रव्यभावप्राणव्यपरोपणाभावे च प्रमत्तयोगमात्रं न हिंसेति ज्ञापनार्थं प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणमित्येतदुभयं विशेषणं कृतमिति बोद्धव्यम् । ननु सूक्ष्मस्थूलजन्तुभिनिरन्तरं पूर्णे लोके कथं जैनतपस्विनामहिंसावतमवतिष्ठते ? तथा चोक्तम् जले जन्तुः स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः ॥ इति ।। शंका-शरीरधारी जीव तो प्राणों से पृथक् है अतः प्राणोंके वियोग से होने वाला दुःख उसके नहीं हो सकता ? समाधान-ऐसा नहीं है । देखिये ! पुत्र मित्र कलत्रादि आत्मा से पृथक हैं तो भी उनके वियोग में आत्माको संताप होता है, जब अत्यन्त पृथक् पदार्थ के वियोग में दुःख होता है तो अत्यन्त निकट ऐसे प्राणों के वियोग होने पर दुःख कैसे नहीं होगा ? दूसरी बात यह है कि यद्यपि शरीरधारी जीव और शरीर इनमें लक्षण भेद होने से नानापना-पृथक्पना है किन्तु बंधकी अपेक्षा ये एकत्व प्राप्त हुए हैं अर्थात् दूध और पानी के समान ये दोनों सम्बन्ध को प्राप्त हुए हैं अतः प्राणोंका शरीर का घात होने पर शरीरधारी जीवको दुःख होता है और उससे अधर्म होता है। जो परवादीगण आत्माको सर्वथा निष्क्रिय, नित्य, शुद्ध, सर्वगत इत्यादि स्वरूप मानते हैं उनके मतकी अपेक्षा ऐसे आत्माका शरीरके साथ सम्बन्ध ही नहीं हो सकता अतः दुःखादिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । प्रमत्त योग न हो तो केवल प्राण व्यपरोपण मात्र से हिंसा नहीं मानी जाती । तथा द्रव्य भाव प्राणों का घात नहीं होने पर केवल प्रमत्त योग से हिंसा नहीं मानी जाती अर्थात् अकेले प्रमाद योग से हिंसा नहीं होती और अकेले प्राण घात होने से भी हिंसा नहीं मानी जाती, प्रमत्तयोग और प्राण व्यपरोपण दोनों होवे तब हिंसा दोष माना जाता है, इसी बातको बतलाने के लिये 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' ऐसा निर्दोष लक्षण किया है । शंका-संपूर्ण लोक सूक्ष्म स्थूल जीवों द्वारा निरन्तर भरा हुआ है, ऐसे लोक में जैन साधुओं के अहिंसा व्रत कैसे पल सकता है ? कहा भी है-जल में जीव हैं, स्थल
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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